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आदिपुराणम् 'अन्वर्थवेदो कल्याण: कल्याणप्रकृतिः शुभः । अयोनिजः सुजातश्च सप्तधा सुप्रतिष्ठितः ॥३९॥ मदनिर्झरसंसिक्तकर्णचामरलम्बिनीः । मदनुतीरिवाविप्रदपराः षट्पदावली ॥४०॥ मुखैबहुभिराकीर्णो गजराजः स्म राजते । सेव्यमान इवायातैर्मक्रया विश्वैरनेकपः ॥४॥
[दशमिः कुलकम् ] अशोकपालवाताम्रतालुच्छायाछलेन यः । वहन्मुहुरिवारुच्या पल्लवान् कवलीकृतान् ॥४२॥----- मृदङ्गमन्द्रनिषैः कर्णतालामिताडनैः । सालिवीणाहतेहरारूधातोगविभ्रमः ॥४३॥ करं सुदीर्घनिःश्वासं मदवेशी च यो बहन् । सनिर्भरस्य सशयोः बिभर्ति स्म गिरेः श्रियम् ॥४॥ दन्तालग्नैर्मृणालों राजते स्मायतै शम् । "प्रारोहेरिव दन्तानां शशाकशकलामलैः ॥४५॥ पनाकर इव श्रीमान् दधानः पुष्करश्रियम् । काम इव "प्रांशु र्दानार्थिमिरुपासितः ॥४६॥
थी और उसका सभी कोई आदर करता था। वह सार्थक शब्दार्थका जाननेवाला था, स्वयं मङ्गलरूप था, उसका स्वभाव भी मङ्गलरूप था, वह शुभ था, बिना योनिके उत्पन्न हुआ था, उसकी जाति उत्तम थी अथवा उसका जन्म सबसे उत्तम था, वह पराक्रम, तेज, बल, शूरता, शक्ति, संहनन और वेग इन सात प्रकारकी प्रतिष्ठाओसे सहित था। वह अपने कानोंके समीप बैठी हुई उन भ्रमरोंकी पंक्तियोंको धारण कर रहा था जो कि गण्डस्थलोंसे निकलते हुए मदरूपी जलके निर्झरनोंसे भीग गयी थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानो मदकी दूसरी धाराएँ ही हों । इस प्रकार अनेक मुखोंसे व्याप्त हुआ वह गजराज ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भक्तिपूर्वक आये हुए संसारके समस्त हाथी ही उसकी सेवा कर रहे हों ॥३२-४१।। उस हाथीका तालु अशोकवृनके पल्लवके समान अतिशय लाल था। इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो लाल-लाल तालुकी छायाके बहानेसे खाये हुए पल्लवोंको अच्छे न लगनेके कारण वार-बार उगल ही रहा हो ॥४२॥ उस हाथीके कर्णरूपी तालोंको ताड़नासे मृदङ्गके समान गम्भीर शब्द हो रहा था और वहींपर जो भ्रमर बैठे हुए थे वे वीणाके समान शब्द कर रहे थे, उन दोनोंसे वह हाथी ऐसा जान पड़ता था मानो उसने बाजा बजाना ही प्रारम्भ किया हो ॥४३॥ वह हाथी, जिससे बड़ी लम्बी श्वास निकल रही है ऐसी शुण्ड तथा मदजलकी धाराको धारण कर रहा था और उन दोनोंसे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो निर्झरने और सर्पसे सहित किसी पर्वतकी ही शोभा धारण कर रहा हो॥४४॥ इसके , दाँतोंमें जो मृणाल लगे हुए थे उनसे वह ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो चन्द्रमाके टुकड़ोंके समान उज्ज्वल दाँतोंके अंकुरोंसे ही सुशोभित हो रहा हो ॥४५॥ वह शोभायमान हाथी एक सरोवर के समान मालूम होता था क्योंकि जिस प्रकार सरोवर पुष्कर अर्थात् कमलोंकी शोभा धारण करता है उसी प्रकार वह हाथी भी पुष्कर अर्थात् सूड़के अग्रभागकी शोभा धारण कर रहा था, अथवा वह हाथी एक ऊँचे कल्पवृक्षके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार कल्पवृक्ष दान अर्थात् अभिलषित वस्तुओंकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंके द्वारा उपासित होता है उसी प्रकार वह हाथी भी दान अर्थात् मदजलके
१. अनुगतसाक्षरवेदी । २. मङ्गलमूर्तिः । ३. स्वभावः । ४. श्रेयोवान् । ५. शोभनजातिः 'जातस्तु कुलजे बुधे ।' ६. सप्तविधमदाविष्टः । ७. -रिवारुच्यान् द०, म० । -रिवारुच्यम् ल०, म० । ८. अलिवीणारवसहितः । ९. मदधाराम् । १०. अजगरसहितस्य । ११. शिफाभिः । १२. उन्नतः । १३. पक्षे भ्रमरैः।