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हाविंशं पर्व
अय घातिजय जिष्णोरनुष्णीकृत विष्टपे । त्रिलोक्यामभवत् क्षोभः कैवल्योत्पत्तिवात्यया ॥१॥ तदा प्रक्षुमिताम्मोधि वेलाध्वानानुकारिणी । घण्टा मुखरयामास जगत्कल्पामरेशिनाम् ॥२॥ ज्योतिर्लोके महानिसहप्रणादोऽभूत् समुस्थितः । येनाशु विमदीमावैमवापन्सुरयारणाः ॥३॥ दध्वान ध्वनदम्भोद ध्वनितानि तिरोदधन् । वैयन्तरेषु गेहंषु महानानकनिःस्वनः ॥४॥ शंख: 'शं खचरैः सार्धं यूयमेत जिघृक्षवः" । इतीव घोषयन्नुच्चैः फणीन्द्रमवनेऽध्वनत् ॥५॥ विष्टराण्यमरेशानामशनैः प्रचकम्पिरे । अक्षमाणीव तद्गर्व सोढुं जिनजयोत्सवें ॥६॥ "पुष्करैः स्वैरथोरिक्षतपुष्करार्धाः सुरद्विपाः । ननृतुः पर्वतोदना महाहिमिरिवायः ॥७॥ पुष्पाञ्जलिमिवातेनुः समन्तात् सुरभूरुहाः । चलच्छाखाकरदीर्घविंगलस्कुसुमोस्करः ॥८॥ दिशः प्रसत्तिमासेदुः बभ्राजे व्यभ्रमम्बरम् । विरजीकृतभूलोकः शिशिरो मरुदाववौ ॥९॥
अथानन्तर जब जिनेन्द्र भगवान्ने घातिया कोपर विजय प्राप्त की तब समस्त संसारका सन्ताप नष्ट हो गया-सारे संसारमें शान्ति छा गयी और केवलज्ञानकी उत्पत्तिरूप वायुके समूहसे तीनों लोकोंमें क्षोभ उत्पन्न हो गया ।।१।। उस समय क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रकी लहरोंके शब्दका अनुकरण करता हुआ कल्पवासी देवोंका घण्टा समस्त संसारको वाचालित कर रहा था॥२॥ ज्योतिषी देवोंके लोकमें बड़ा भारी सिंहनाद हो रहा था जिससे देवताओंके हाथी भी मदरहित अवस्थाको प्राप्त हो गये थे ॥३॥ व्यन्तर देवोंके घराम नगाड़ोक ऐसे जोरदार शब्द हो रहे थे जो कि गरजते हुए मेघांके शब्दोको भी तिरस्कृत कर रहे थे ॥४॥ 'भो भवनवासी देवो, तुम भी आकाशमें चलनेवाले कल्पवासी देवोंके साथ-साथ भगवान के दर्शनसे उत्पन्न हुए सुख अथवा शान्तिको ग्रहण करनेके लिए आओ' इस प्रकार जोर-जोरसे घोषणा करता हुआ शंख भवनवासी देवोंके भवनों में अपने आप शब्द करने लगा था ॥५॥ उसी समय समस्त इन्द्रोंके आसन भी शीघ्र ही कम्पायमान हो गये थे मानो जिनेन्द्रदेवको घातिया कर्मोके जीत लेनेसे जो गर्व हुआ था उसे वे सहन करनेके लिए असमर्थ होकर ही कम्पायमान होने लगे थे॥६॥ जिन्होंने अपनी-अपनी सूड़ोंके अग्रभागोंसे पकड़कर कमलरूपी अर्घ ऊपरको उठाये हैं और जो पर्वतोंके समान ऊँचे हैं ऐसे देवोंके हाथी नृत्य कर रहे थे तथा वे ऐसे मालूम होते थे मानो बड़े-बड़े सोसहित पर्वत ही नृत्य कर रहे हों॥७॥ अपनी लम्बी-लम्बी शाखाओंरूपी हाथोंसे चारों ओर फूल बरसाते हुए कल्पवृक्ष ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भगवान्के लिए पुष्पांजलि ही समर्पित कर रहे हों ।। ८॥ समस्त दिशाएँ प्रसन्नताको प्राप्त हो रही थीं, आकाश मेघोंसे रहित होकर सुशोभित हो रहा था और जिसने पृथ्वीलोकको धूलिरहित
१. वायुसमूहेन । 'पाशादेश्च यः' इति सूत्रात् समूहार्थे यप्रत्ययः । २. -म्भोधेर्वेला अ०, ल०, म । ३. वाचालं चकार । ४. मदरहितत्वम् । ५. ध्वनति स्म । ६. मेघरवाणि । ७. आच्छादयन् । ८. व्यन्तरसम्बन्धिषु । ९. सुखम् । १०. खेचरैः ल०, म । शाखचरैः ट० । शाखचरैः कल्पवासिभिः । भो भवनवासिनः, यूयम् एत आगच्छत । ११. गहीतुमिच्छवः । १२. ध्वनति स्म । १३. शीघ्रम् । १४. हस्ताः । १५. उदधतशतपत्रपूजाद्रव्याः ।