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आदिपुराणम्
स्यादहंनरिघातादिगुणैरपरगोचरः । बुद्धस्त्रैलोक्य विश्वार्थबोधनाद् विश्वभुद्विभुः ॥२६०॥ स विष्णुश्च विजिष्णुश्च शंकरोऽप्यभयंकरः । शिवः सनातनः सिद्धो ज्योतिः परममक्षरम् ॥२६१॥ इत्यन्वर्थानि नामानि यस्य लोकेशिनः प्रभोः । विदुषां हृदयेष्वासबुद्धिं कर्तुमलंतराम् ॥ २६२ ॥ यस्य रूपमधिज्योति रनम्बरविभूषणम् । शास्ति कामज्वरापायमकटाक्ष निरीक्षणम् ॥ २६३ ॥ निरायुधस्वान्निर्भूतभयको कोपनात् । अरक्तनयनं सौम्यं सदा प्रहसितायितम् ॥२६४॥ रागाद्यशेषदोषाणां निर्जयादतिमानुषम् । मुखाब्जं यस्य शास्त्रत्वमनुशास्ति सुमेधसः ॥ २६५॥ -- स एवाप्तो जगद्वयाप्तज्ञानवैराग्यनैमत्रः । तदुपशमतो' ध्यानं श्रेयं श्रेयोऽर्थिनामिदम् ॥ २६६॥ मालिनी छन्दः
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इति गढ़ति” गणेन्द्रे ध्यानतत्वं मह
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मुनिसदसि मुनीन्द्राः प्रातुषम्भक्तिभाजः ।
दिया है इसलिए वे वाचस्पति कहलाते हैं || २५९ || अन्य किसीमें नहीं पाये जानेवाले, राग-द्वेष "आदि कर्मशत्रुओं घात करना आदि गुणोंके कारण वे अर्हत् अथवा अरिहन्त कहलाते हैं । तीन लोकके समस्त पदार्थोंको जाननेके कारण वे बुद्ध कहलाते हैं और वे समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिए विभु कहलाते हैं || २६० || इसी प्रकार वे समस्त संसार में व्याप्त होनेसे 'विष्णु', कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेसे 'विजिष्णु', शान्ति करनेसे 'शंकर', सब जीवोंको अभय देने से 'अभयंकर', आनन्दरूप होने से 'शिव' आदि अन्तरहित होनेके कारण 'सनातन', कृतकृत्य होने के कारण 'सिद्ध', केवलज्ञानरूप होनेसे 'ज्योति', अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मीसे सहित होने के कारण 'परम' और अविनाशी होनेसे 'अक्षर' कहलाते हैं || २६१ || इस प्रकार जिस त्रैलोक्यनाथ प्रभुके अनेक सार्थक नाम हैं वही अरहन्तदेव विद्वानोंके हृदय में बुद्धि करने के लिए समर्थ हैं अर्थात् विद्वान पुरुष उन्हें ही आप्त मान सकते हैं || २६२ || जिनका रूप वस्त्र और आभूषणोंसे रहित होनेपर भी अतिशय प्रकाशमान है और जिनका कटाक्ष रहित देखना कामरूपी ज्वर के अभावको सूचित करता है || २६३ || शस्त्ररहित होनेके कारण जो भय और क्रोधसे रहित है तथा क्रोधका अभाव होनेसे जिसके नेत्र लाल नहीं हैं, जो सदा सौम्य और मन्द मुसकान से पूर्ण रहता है, राग आदि समस्त दोषोंके जीत लेनेसे जो समस्त अन्य पुरुषोंके मुखोंसे बढ़कर है ऐसा जिनका मुखकमल ही विद्वानोंके लिए उत्तम शासकपनाका उपदेश देता है अर्थात् विद्वान् लोग जिनका मुख-कमल देखकर ही जिन्हें उत्तम शासक समझ लेते हैं ।। २६४ - २६५ ।। इसके सिवाय जिनके ज्ञान और वैराग्यका वैभव समस्त जगत् में फैला हुआ है ऐसे अरहन्तदेव ही आप्त हैं । यह ध्यानका स्वरूप उन्हीं के द्वारा कहा हुआ है इसलिए कल्याण चाहनेवालोंके लिए कल्याणस्वरूप है || २६६ ||
इस प्रकार बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंको धारण करनेवाले गौतम गणधरने जब मुनियोंकी सभा में ध्यानतत्वका निरूपण किया तब भक्तिको धारण करनेवाले वे मुनिराज बहुत ही
१. अन्येषामविषयैः । २ विश्वं बोधयतीति । ३. वेवेप्टि इति ज्ञानरूपेण लोकालोकं वेवेष्टि इति विष्णुरित्यर्थः । ४. अविनश्वरम् । ५. अतिशयेन समर्थानि । ६. अधिकं ज्योतिस्तेजो यस्य तत् । ७. उपदिशति । ८. प्रहसितासितम् ब० । ९ मानुषमतीतम्, दिव्यमित्यर्थः । १०. शिक्षकत्वम् । ११. सर्वज्ञेन प्रथममुपक्रान्तम् । १२. श्रेयणीयम् । १३. वदति सति । १४. स्वरूपम् । १५. तुष्टवन्तः ।