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आदिपुराणाम्
पुष्पिताग्रावृत्तम्
मृदुतरपवने वने प्रफुल्लत् कुसुमित मालति कातिकान्तपावें । मरुदयमधुना 'धुनोति वीथीरवनिरुहां मलिना लिनाम मुष्मिन् ॥ १३५ ॥ वसन्ततिलकम्
प्राधूतकल्पतरुवीथिरतो नमस्त्रान् मन्दारसान्द्ररजसा सुरभिकृताशः । मत्तालिकोकिलरुतानि हरन्समन्तादावाति पल्लवपुटानि शनैर्विभिन्दन् ॥ १३६॥
पुष्पिताप्रावृत्तम् घृतकमलवने वने तरङ्गानुपरचयन्मकरन्दगन्धबन्धुः । अयमतिशिशिरः शिरस्तरूणां सकुसुममास्पृशतीह गन्धवाहः ॥ १३७ ॥
अपरवक्त्रम् मृदित मृदुलताम्रपल्लवैः वलयित निर्झरशीकरोत्करैः । अनुवनमिह नीयतेऽनिलैः कुसुमरजो विधुतं वितानताम् ॥ १३८ ॥ चलवलय रबैर वाततैः अनुगतनूपुरहारिशङ्कृतैः । 'सुपरिगम मिहाम्बरेचरीरतमतिवर्ति'' वनेषु किन्नरैः ॥ १३९॥
चम्पकमालावृत्तम्
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मन्त्र वनान्ते पत्रिगणोऽयं " श्रोत्रहरं नः कूजति चित्रम् । "सत्रिपताकं नृत्यति नूनं त सतनाम वशिखण्डी
॥१४०॥
तहाँ ऐसी घूम रही हैं मानो निकली हुई मंजरियोंसे सुशोभित और चंचल भ्रमरोंके समूहसे युक्त सोनेकी लताएँ ही हों ॥ १३४ ॥ जिसमें मन्द मन्द वायु चल रहा है, फूल खिले हुए हैं और फूली हुई मालतीसे जिसके किनारे अतिशय सुन्दर हो रहे हैं ऐसे इस वनमें इस समय यह वायु काले-काले भ्रमरोंसे युक्त वृक्षोंकी पंक्तिको हिला रहा है || १३५|| इधर, जिसने कल्पवृक्षों की पंक्तियाँ हिलायी हैं, जिसने मन्दार जातिके पुष्पोंकी सान्द्र परागसे दिशाएँ सुगन्धित कर दी हैं, जो मदोन्मत्त भ्रमरों और कोयलोंके शब्द हरण कर रहा है और जो नवीन कोमल पत्तोंको भेद रहा है ऐसा वायु धीरे-धीरे सब ओर बह रहा है || १३६ ||
इधर, जो कमलवनोंको धारण करनेवाले जलमें लहरें उत्पन्न कर रहा है, फूलोंके रसको सुगन्धिसे सहित है और अतिशय शीतल है ऐसा यह वायु फूले हुए वृक्षोंके शिखरका सब ओरसे स्पर्श कर रहा है || १३७|| जिसने कोमल लताओंके ऊपरके नवीन पत्तोंको मसल डाला है और जिसमें निर्झरनोंके जलकी बूँदोंका समूह मण्डलाकार होकर मिल रहा है ऐसा यह वायु अपने द्वारा उड़ाये हुए फूलोंके परागको चोवाकी शोभा प्राप्त करा रहा है। भावार्थइस वनमें वायुके द्वारा उड़ाया हुआ फूलोंका पराग चंदोवाके समान जान पड़ता है ।। १३८ || इस बनमें होनेवाली विद्याधरियोंकी अतिशय रतिक्रीड़ाको किन्नर लोग चारों ओर फैले हुए चंचल कंकणोंके शब्दोंसे और उनके साथ होनेवाले नूपुरोंकी मनोहर झंकारोंसे सहज ही जान लेते हैं || १३९|| इधर यह पक्षियों का समूह इस वनके मध्यमें हम लोगोंके कानोंको आनन्द देनेवाला तरह-तरहका शब्द कर रहा है और इधर यह उन्मत्त हुआ मयूर विस्तृत शब्द करता हुआ
१. जाति: । 'सुमना मालती जाति: ।' २. कम्पयति । धुनाति इति क्वचित् । ३. जले । ४. पुष्परजः परिमलयुक्तमित्यर्थः । ५. मर्दित । ६. वने । ७. अत्र समन्तात् विस्तृतैः । ८ सुज्ञानम् । ९. कामक्रीडाम् । १०. अतिमात्रवर्तनं यस्य । ११. पक्षी । १२. करणविशेषयुक्तम् । सपिच्छ भारम् । १३. तत्कूजनबीणादिवाद्यरः । १४. मयूरः ।