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आदिपुराणम् संयमक्रियया सर्वप्राणिभ्योऽभयदायिने । 'सर्वीयज्ञानदानाय सार्वाय प्रभविष्णवे ॥१८॥ दातुराहारदानस्य महानिस्तार कारमने । त्रिजगत्सर्वभूतानां हितार्थ मार्गदेशिने ॥१९॥ श्रेयान् सोमप्रमेणामा लक्ष्मीमत्या च सादरम् । रसमिक्षोरदात् प्रासु मुत्तानीकृतपाणये ॥१०॥ पुण्डूक्षुरसधारान्तां भगवत्पाणिपात्रकं । स समावर्जयन् रेजे पुण्यधारामिवामलाम् ॥१०॥ रत्नवृष्टिरथापतदम्बरादमरेशिनाम् । करैर्मुकामहादानफलस्येव परम्परा ॥१०२॥ तदापप्तदिवो देवकरैर्मुक्तालिसंकुला । वृष्टिः सुमनसां रष्टिमालेव त्रिदिवौकसाम् शानेदुः सुरानका मन्द्रं वधिरोकृतविष्टपाः । संचचार मरुच्छीतः सुरमिर्मान्धसुन्दरः ॥१०४॥ प्रोच्चचार महाध्वानो देवानां प्रीतिमीयुषाम् +महो वानमहो पात्रमहो दातेति खाङ्गणे ॥१०५॥ कृतार्थतरमारमानं मेने तद् भ्रातृयुग्मकम् । कृतार्थोऽपि"विभुर्यस्माद पुनात् स्व गृहाङ्गणम् ॥१०६॥ दानानुमोदनात् पुण्यं परोऽपि बहवोऽमजन् । यथासाद्य परं रत्नं स्फटिकस्तद्रुचिं मजेत् ॥१०॥
कारणं परिणामः स्याद् बन्धने पुण्यपापयोः । बामं तु कारणं प्राहुराताः कारणकारणम् ॥१०॥ रक्षा करनेवाले थे, महानती थे, महान् थे, मोहरहित थे और इच्छारहित थे। जो संयम रूप क्रियासे सब प्राणियोंके लिए अभय दान देनेवाले थे, सबका हित करनेवाले थे, सर्वहितकारी ज्ञान-दान देने में समर्थ थे। जो आहार-दान देनेवालेका शीघ्र ही संसार-सागरसे पार करने वाले थे, तीनों लोकोंके समस्त जीवोंका हित करनेके लिए मोक्षमागका उपदेश देनेवाले थे
और जिन्होंने अपने दोनों हाथ उत्तान किये थे अर्थात् दोनों हाथोंको सीधा मिलाकर अंजली (खोवा) बनायी थी ऐसे भगवान् वृषभदेवके लिए श्रेयान्सकुमारने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमतीके साथ-साथ आदरपूर्वक ईखके प्रासुक रसका आहार दिया था ॥८९-१००॥ वह राजकुमार श्रेयान्स भगवान्के पाणिपात्रमें पुण्यधाराके समान उज्ज्वल पौड़े और ईखके रसकी धारा छोड़ता हुआ बहुत अच्छा सुशोभित हो रहा था।॥१०१।। तदनन्तर आकाशसे महादानके फलकी परम्पराके समान देवोंके हाथसे छोड़ी हुई रत्नोंकी वर्षा होने लगी ॥१०२।। उसी समय देवोंके हाथोंसे छोड़ी हुई और भ्रमरों के समूहसे व्याप्त फूलोंकी वर्षा आकाशसे होने लगी। वह फूलोंकी वर्षा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो देवोंके नेत्रोंकी माला ही हो॥१०३।। उसी समय समस्त लोकको बधिर करनेवाले देवोंके नगाड़े गम्भीर शब्द करने लगे और मन्द-मन्द गमन करनेसे सुन्दर शीतल तथा सुगन्धित वायु चलने लगा॥१०४॥ उसी समय प्रीतिको प्राप्त हुए देवोंका 'धन्य यह दान, धन्य यह पात्र, और धन्य यह दाता' इस प्रकार बड़ा भारी शब्द आकाशरूपी आँगनमें हो रहा था ॥१०५।। उस समय उन दोनों भाइयोंने अपने-आपको बहुत ही कृतकृत्य माना था क्योंकि कृतकृत्य हुए भगवान् वृपभदेवने स्वयं उनके घरके आँगनको पवित्र किया था ॥१०६।। उस दानकी अनुमोदना करनेसे और भी बहुत-से लोग परम पुण्यको प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि स्फटिक मणि किसी अन्य उत्कृष्ट रत्नको पाकर उसको कान्तिको प्राप्त होता ही है ॥१०७॥ यदि यहाँ कोई आशंका करे कि अनुमोदना करनेसे पुण्यकी प्राप्ति किस प्रकार होती है तो उसका समाधान यह है कि पुण्य और पापके बन्ध होने में केवल जीवके परिणाम ही कारण हैं बाह्य कारणोंको तो जिनेन्द्र देवने केवल कारणका कारण अर्थात्
१. सर्वजनहितोपदेशकाय । २. दानस्य ल०, द० । ३. समर्थाय । ४. संसारसमुद्रतारकः । ५. सोमप्रभभार्यया। ६. प्रासुकम् । ७. पुष्पाणाम् । ८. ध्वनन्ति स्म । ९. महान् ध्वानो द०, ल.। १०. प्राप्तवताम् । ११. तीर्थकरः । १२. कारणात् । १३. अस्मदीयम् । १४. अन्यम् । १५. कारणस्य कारणम् । परिणामस्य कारणं वस्तु ।