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वंश पर्व
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दृष्ट्वा भागवतं ' रूपं परं प्रीतोऽस्म्यतां मम । जातिस्मरस्य मुदभूते नाभुरिस गुरोमंतम् ॥ १३१ ॥ अहं हि श्रीमती नाम वज्रजङ्घमचे विमोः । विदेहे पुण्डरीकिष्यामभूवं प्राणवल्लभा ॥ १३२ ॥ समं भगवतानेन विभ्रता वज्रजङ्घताम् । तदा चारणयुग्माय दर्त्त दानमभून्मया ॥ १३३॥ विशुद्धतमुत्सृष्टङ्कं ख्यातिकारणम् । महद्दानं च काव्यं च पुण्यालभ्यमिदं द्वयम् ॥१३४॥ 'का चेानस्य संशुद्धिः शृणु मो मराधिप । 'अनुग्रहार्थं स्वस्याविसर्गे दानं त्रिशुद्धिकम् ॥१३५॥ दातुर्विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा । शुद्धिर्दयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः ॥ १३६ ॥ पात्रस्य शुद्धिर्दातारं देवं चैव पुनाश्यदः । "नवकोटिविशुद्धं तद्दानं भूरिफलोदयम् ॥१३७॥ दाता श्रद्धादिमिर्युको गुणैः पुण्यस्य साधनैः । देवमाहारभैषज्यशास्त्राभयविकल्पितम् ॥ १३८ ॥ पानं रागादिमित्रोंचैरस्पृष्टो गुणवान् भवेत् । तच त्रेधा जधम्यादिभेदेर्भेद' 'मुपेयिवत् ॥१३९॥ जघन्यं शीलवान् मिथ्यादृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । सद्दृष्टिर्मध्यमं पात्रं निःशीलवत भावनः ।। १४० ।। सद्दृष्टिः शीलसंपत्र: पात्रमुत्तममिष्यते । कुदृष्टियों विशीलश्च नैत्र” पात्रमसौ मतः ॥ १४१ ॥
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सुशोभित तालाबको देखकर प्रसन्न होता है उसी प्रकार भगवान् के उत्कृष्ट रूपको देखकर मैं अतिशय प्रसन्न हुआ था और इसी कारण मुझे जातिस्मरण हो गया था जिससे मैंने भगवान्का अभिप्राय जान लिया था ।। १३०-१३१ ।। पूर्वभवमें जब भगवान् वज्रजंधकी पर्यायमें थे तब विदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीमें मैं इनकी श्रीमती नामकी प्रिय श्री हुआ था ॥ १३२ ॥ उस समय बजजंधकी पर्यायको धारण करनेवाले इन भगवान् के साथ-साथ मैंने दो चारणमुनियोंके लिए दान दिया था ॥ १३३ ॥ अतिशय विशुद्ध, दोषरहित और प्रसिद्धिका कारण ऐसा महादान देना और काव्य करना ये दोनों ही वस्तुएँ बड़े पुण्यसे प्राप्त होती हैं ।। १३४|| हे भरतक्षेत्रके स्वामी भरत महाराज, दानकी विशुद्धिका कुछ थोड़ा-सा वर्णन आप भी सुनिए - स्व और परके उपकार के लिए मन-वचन-कायको विशुद्धतापूर्वक जो अपना धन दिया जाता है. उसे दान कहते हैं || १३५ || दान देनेवाले (दाता) की विशुद्धता दानमें दी जानेवाली वस्तु तथा दान लेनेवाले पात्रको पवित्र करती है। दी जानेवाली वस्तुकी पवित्रता देनेवाले और लेनेबालेको पवित्र करती है और इसी प्रकार लेनेवालेकी विशुद्धि देनेवाले पुरुषको तथा दी जानेवाली वस्तुको पवित्र करती है इसलिए जो दान नौ प्रकारकी विशुद्धतापूर्वक दिया जाता है वही अनेक फल देनेवाला होता है। भावार्थ - दान देनेमें दाता, देय और पात्रकी शुद्धिका होना आवश्यक है ॥ १३६- १३७॥ पुण्य प्राप्तिके कारण स्वरूप, श्रद्धा आदि गुणोंसे सहित पुरुष दाता कहलाता है और आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभयसे चार प्रकारकी वस्तुएँ देय कहलाती हैं ॥१३८॥ जो रागादि दोनोंसे हुआ भी नहीं गया हो और जो अनेक गुणोंसे सहित हो ऐसा पुरुष पात्र कहलाता है, वह पात्र जघन्य, मध्यम और उत्तमके भेदसे तीन प्रकारका होता है । हे राजन, यह सब मैंने पूर्वभवके स्मरणसे जाना है ॥ १३९ ॥ जो पुरुष मिध्यादृष्टि है परन्तु मन्दकपाय होने से व्रत, शील आदिका पालन करता है वह जघन्य पात्र कहलाता है, और जो व्रत, शील आदिकी भावनासे रहित सम्यग्दृष्टि है वह मध्यम पात्र कहा जाता है ।। १४० ।। जो व्रत, शील आदि से सहित सम्यग्दृष्टि है वह उत्तम पात्र कहलाता है और जो व्रत, शील आि
१. भगवतः संबन्धि । २. अनन्तरम् । ३. जातिस्मरणेन । ४. जानामि स्म । ५. काचिद् दानस्य संशुद्धिः अ० । काचिद् दानस्य संशुद्धिम् ल० । ६. स्वपरोपकाराय । ७. धनस्य । ८. त्यागः । ९. मनोवाक्कायशुद्धिमत् । १०. नवसंख्या । ११. भेदैरिदमुपेयिवान् ल० अ० म० । १२. प्राप्तम् । १३. अपात्रमित्यर्थः ।
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