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विंश पर्व
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मनोऽक्षग्रामकायानां तपनात् सन्निरोधनात् । तपो निरुच्यने तज्जस्तदिदं द्वादशात्मकम् ॥२०४॥ विपुलां निरामिच्छन् महोदकं च संवरम् । यतते स्म तपस्यस्मिन् द्विषड्भेडे विदांवरः ॥२०५॥ सगुप्तिसमिती धर्म सानुप्रेक्षं क्षमादिकम् । परीषहांजयन् सम्यक्चारित्रं चावरच्चिरम् ॥२०६॥ ततो दिध्यासुनानेन योग्या देशाः सिषेविरे । विविका रमणीया ये विमुक्ता रागकारणेः ॥२०७॥ गुहापुलिनगिर्यग्रजीर्णोद्यानवनादयः । नात्युष्णशीतसम्पाता देशाः साधारणाश्च ये ॥२०॥ कालश्च नातिशीतोष्ण भूयिष्ठी जनतासुखः । मावश्च ज्ञानवैराग्यरतिक्षान्त्यादिलक्षणः ॥२०९॥ 'द्रव्याण्यप्यनुकूलानि यानि संक्लेशहानय । प्रभविष्णूनि तानीशः' सिपेवे ध्यान सिद्धये ॥२१०॥ कदाचिद् गिरिकुम्जेपु कदाचिद् गिरिकन्दरे"कदाचिच्चाद्विशृङ्गेषु दध्यावध्यात्मतत्ववित् ॥२१॥
कहिंचिद् बहिणारावरम्योपान्तपु हारिपु । गिर्यग्रेषु शिलापट्टान ध्यास्ताध्यात्मशुद्धये ॥२१२॥
अगों"प्पदंष्वरण्येषु कदाचिदनुप"ते । निर्जन्तुकं विविक्ते च स्थाण्डिलेऽस्थात् समाधये ॥२१३॥ मन इन्द्रियोंका समूह और काय इनके तपन तथा निग्रह करनेसे ही तप होता है ऐसा तपके जाननेवाले गणधरादि देव कहते हैं और वह तप अनशन आदिके भेदसे बारह प्रकारका होता है॥२०४। विद्वानों में अतिशय श्रेष्ठ वे भगवान कोकी बडी भारी निर्जरा और उत्तम फल देनेवाले संवरकी इच्छा करते हुए इन बारह प्रकारके तपॉमें सदा प्रयत्नशील रहते थे ।।२०५।। वे भगवान् परीषहोंको जीतते हुए गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, क्षमा आदि धर्म और सम्यक् चारित्रका चिरकाल तक पालन करते रहे थे। भावार्थ-गुप्ति, समिति धर्म, "अनुप्रेक्षा, परोघह जय
और चारित्र इन पाँच कारणोंसे नवीन आते हुए कोका आस्रव हककर संवर होता है। जिनेन्द्र देवने इन पाँचोंही कारणोंको चिरकाल तक धारण किया था ।।२०।। तदनन्तर ध्यानधारण करने की इच्छा करनेवाले भगवान ध्यानके योग्य उन-उन प्रदेशोंमें निवास करते थे जो कि एकान्त थे, मनोहर थे और राग-द्वेप उत्पन्न करनेवाली सामग्रीसे रहित थे ॥२०७।। जहाँ न अधिक गरमी पड़ती हो और न अधिक शीत ही होता हो जहाँ साधारण गरमी-सर्दी रहती हो अथवा जहाँ समान रूपसे सभी आ-जा सकते हों ऐसे गुफा, नदियोंके किनारे, पर्वतके शिखर, जीर्ण उद्यान और वन आदि प्रदेश ध्यानके योग्य क्षेत्र कहलाते हैं। इसी प्रकार जिसमें न बहुत गरमी और न यहुत सर्दी पड़ती हो तथा जो प्राणियोंको दुःखदायी भी न हो ऐसा काल ध्यान योग्य काल कहलाता है। ज्ञान, वैरोग्य, धैर्य और भमा आदि भाव ध्यानके योग्य भाव कहलाते हैं और जो पदार्थ भुधा आदिसे उत्पन्न हुए संक्लेशको दूर करने में समर्थ हैं ऐसे पदार्थ ध्यानके योग्य द्रव्य कहलाते हैं। स्वामी वृषभदेव ध्यानकी सिद्धिके लिए अनुकूल द्रव्य क्षेत्र काल और भावका ही सेवन करते थे। २०४-२१०।। अध्यात्म तत्त्वको जाननेवाले वे भगवान कभी तो पर्वतपर-के लतागृहों में कभी पर्वतकी गुफाओंमें और कभी पर्वतके शिखरोंपर ध्यान लगाते थे ।।२१।। वे भगवान् अध्यात्मकी शुद्धिके लिए कभी तो ऐसे-ऐसे सुन्दर पहाड़ोंके शिखरोंपर पड़े हुए शिलातलोंपर आरूढ़ होते थे कि जिनके समीप भाग मयूरोके शब्दोंसे बड़े ही मनोहर हो रहे थे ।।२१२।। कभी-कभी समाधि (ध्यान ) लगानेके लिए वे भगवान् जहाँ गायोंके खुरों तकके चिह्न नहीं थे ऐसे अगम्य वनोंमें उपद्रवशून्य जीवरहित
१. महोत्तरफलम् । २. ध्यातुमिच्छुना। ३. संप्राप्तिः । ४. न पराधोनाः । सर्वैः सेव्या इत्यर्थः । ५. अत्यर्थशीतोष्णबाहुल्यरहितः। ६. आहारादीनि । ७. सक्लेशविनाशाय । ८. समर्यानि । ९. प्रभुः । १०. लतादिपिहितोदरे प्रदेशे। ११. दर्याम् । १२. कदाचित् । १३. शिलापट्टेषु । १४. अध्यासते स्म । १५. मानरहितेप, अगोगम्येषु वा । 'गोष्पदं गोवश्वभ्रे मानगोगम्ययोरपि' इत्यभिधानात् । १६. उपद्रवरहिते । १.७. पूते । १८. क्षुद्रपाषाणभूमौ ।