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एकविंशं पर्व नास्युन्मिषन्न चात्यन्तं निमिषन्मन्दमुच्छ्वसन् । दन्तैदन्ताग्रसंधानपरो धीरो 'निरुद्धधीः ॥२॥ हृदि मूनि ललाटे वा नाभेरूचं परत्र वा । स्वाभ्यासवशतश्चित्तं निधायाध्यात्मविन्मुनिः ॥६॥ ध्यायेद् द्रव्यादियाथात्म्यमागमार्थानुसारतः । परीषहोस्थिता बाधाः सहमानो निराकुलः ॥६॥ प्राणायामऽतितीव्र स्यादवश स्याकुलं मनः । म्याकुलस्य समाधानभङ्गामा ध्यानसंभवः ॥६५॥ अपि न्युस्सप्टकायस्य समाधिप्रतिपत्तये । मन्दोच्छवासनिमेषादिवृत्तेर्नास्ति निषेधनम् ॥६६॥ समावस्थितकायस्य स्यात् समाधानमशिनः । दुःस्थिताङ्गस्य तमगाद् भवेदाकुलता धियः ॥६॥ ततो यथोक्तपल्यलक्षणासनमास्थितः । ध्यानाभ्यासं प्रकुर्वीत योगी व्याक्षेपमुत्सृजन् ॥६८॥ 'पल्पक इव दिध्यासोः कायोत्सर्गोऽपि सम्मतः । समप्रयुक्तसर्वाङ्गो द्वात्रिंशदोषवर्जितः ॥६९॥ "विसंस्थुलासनस्थस्य ध्रुवं गात्रस्य निग्रहः । तनिग्रहान्मनःपीडा ततश्च विमनस्कता ॥७॥ बैमनस्ये च किं ध्यायेत् तस्मादिष्टं सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यस्ततोऽन्यद्विषमासनम् ॥७१॥
"तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यतेः । प्रायस्तत्रापि पल्यङ्कमामनन्ति सुखासनम् ॥७२॥ उच्छ्वास ले,ऊपर और नीचेकी दोनों दाँतोंको पंक्तियोंको मिलाकर रखे और धीर-वीर हो मनको स्वच्छन्द गतिको रोके । फिर अपने अभ्यासके अनुसार मनको हृदयमें, मस्तकपर, ललाटमें, नाभिके ऊपर अथवा और भी किसी जगह रखकर परीषहोंसे उत्पन्न हई बाधाओं ओंको सहता हुआ निराकुल हो आगमके अनुसार जीव-अजीव आदि द्रव्योंके यथार्थस्वरूपका चिन्तवन करे ।।१७-६४॥ अतिशय तीव्र प्राणायाम होनेसें अर्थात् बहुत देर तक श्वासोच्छ्वासके रोक रखनेसे इन्द्रियोंको पूर्ण रूपसे वशमें न करनेवाले पुरुषका मन व्याकुल हो जाता है। जिसका मन व्याकुल हो गया है उसके चित्तकी एकाग्रता नष्ट हो जाती है और ऐसा होनेसे उसका ध्यान भी टूट जाता है। इसलिए शरीरसे ममत्व छोड़नेवाले मुनिके ध्यानकी सिद्धिके लिए. मन्द-मन्द उच्छ्वास लेना और पलकोंके लगने, उपड़ने आदिका निषेध नहीं है ।।६५-६६।। ध्यानके समय जिसका शरीर समरूपसे स्थित होता है अर्थात् ऊँचा-नीचा नहीं होता है उसके समाधान अर्थात् चित्तकी स्थिरता रहती है और जिसका शरीर विषम रूपसे स्थित है उसके समाधानका भंग हो जाता है और समाधानके भंग हो जानेसे बुद्धिमें आकुलता उत्पन्न हो जाती है इसलिए मुनियोंको ऊपर कहे हुए पर्यक आसनसे बैठकर और चित्तकी चञ्चलता छोड़कर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए ॥६७-६८॥ ध्यान करनेकी इच्छा करनेवाले मुनिको पर्यक आसनके समान कायोत्सर्ग आसन करनेकी भी आज्ञा है। कायोत्सर्गके समय शरीरके समस्त अंगोंको सम रखना चाहिए और आचार शास्त्रमें कहे हुए बत्तीस दोषोंका बचाव करना चाहिए ॥६९॥ जो मनुष्य ध्यानके समय विषम (ऊँचे-नीचे ) आसनसे बैठता है उसके शरीरमें अवश्य ही पीड़ा होने लगती है, शरीरमें पीड़ा होनेसे मनमें पीड़ा होती है और मनमें पीड़ा होनेसे आकुलता उत्पन्न हो जाती है । आकुलता उत्पन्न होनेपर कुछ भी ध्यान नहीं किया जा सकता इसलिए ध्यानके समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यक ये दो सुखासन हैं इनके सिवाय बाकी सब विषम अर्थात दुःख करनेवाले आसन हैं ॥७०-७११ ध्यान करनेवाले मुनिके प्रायः इन्हीं दो आसनोंकी प्रधानता रहती है और उन दोनों में भी
१. निरुद्धमनः । २. कण्ठादी। ३. योगनिग्रह, आनस्य प्राणस्य दैर्ये । ४. असमर्थस्य । ५. त्यक्तशरीरममकारस्य । ६. निश्चयाय । ७. समानस्थितशरीरस्य । ८. कार्यान्तरपारवश्यम् । ९. पर्यक ल., म., १०। १०. विषमोन्नतासनस्थस्य, अथवा बज्रवीरासनकुक्कुटासनादिविषमासनस्य । विसंष्ठुला-ल., म०। ११. कायोत्सर्गपर्याभ्याम । १२. कायोत्सर्गपर्यङ्कामनद्वयरूपस्यैव ।