Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 585
________________ एकविंशं पर्व स्नातकः कर्मवैकल्यात् कैवल्यं पदमापिवान् । स्वामी परमशुक्लस्य द्विधा भंदमुपयुषः ॥१८॥ स हि योगनिरोधार्थमुद्यतः केवली जिनः । समुद्घातविधि पूर्वमाविः कुर्यान्निसर्गतः ॥१४९॥ दण्डमुच्चैः कवाटं च प्रतरं लोकपूरणम् । चनुर्मिः समयैः कुर्वल्लोकमापूर्य तिष्ठति ॥१९॥ तदा सर्वगतः सार्वः सर्ववित् पूरको भवेत् । तदन्ते रेचकावस्थामधितिष्ठन्महीयते ॥१९१॥ जगदापूर्य विश्वज्ञः समयात् प्रतरं श्रितः । ततः कवाटदण्डं च क्रमणैवोपसंहरन् ॥१९२॥ तत्राघातिस्थिते गानसंख्येयानिहन्त्यसौ । अनुमागस्य चानन्तान् मागानशुभकर्मणाम् ॥११३॥ पुनरन्तर्मुहूर्त्तन निरुन्धन् योगमास्रवम् । कृत्वा वाङ्मनसे सूक्ष्मे काययोगन्यपाश्रयात् ॥१९४।। सूक्ष्मीकृत्य पुनः काययोगं च तदुपाश्रयम् । ध्यायेत् सूक्ष्मक्रियं ध्यानं प्रतिपातपरामुखम् ॥ १९५॥ ततो निरुद्धयोगः सञ्चयोगी विगतानवः । समच्छिन्नक्रियं ध्यानमनिवति तदा भजेत् ॥१९६॥ अन्तर्मुहूर्तमातन्वन् तद्ध्यानमतिनिर्मलम् । विधु'ताशेषकांशो जिनो निर्वात्यनन्तरम् ॥१९७॥ वह एक योग तीन योगोंमें से कोई भी हो ॥१८७॥ घातिया कर्मो के नष्ट होनेसै जो उत्कृष्ट केवलज्ञानको प्राप्त हुआ है ऐसा स्नातक मुनि ही दोनों प्रकारके परम शुक्लध्यानोंका स्वामी होता है । भावार्थ-परम शुक्लध्यान केवली भगवान्के ही होता है ॥१८८॥ वे केवलज्ञानी जिनेन्द्रदेव जब योगोंका निरोध करनेके लिए तत्पर होते हैं तब वे उसके पहले स्वभावसे ही समुद्घातकी विधि प्रकट करते हैं ।।१८।। पहले समयमें उनके आत्माके प्रदेश चौदह राजू ऊँचे दण्डके आकार होते हैं, दूसरे समयमें किवाड़के आकार होते हैं, तीसरे समयमें प्रतर रूप होते हैं और चौथे समयमें समस्त लोकमें भर जाते हैं। इस प्रकार वे चार समयमें समस्त लोकाकाशको व्याप्त कर स्थित होते हैं ।।१९०।। उस समय समस्त लोकमें व्याप्त हुए, सबका हित करनेवाले और सब पदार्थों को जाननेवाले वे केवली जिनेन्द्र पूरक कहलाते हैं। उसके बाद वे रेचक अवस्थाको प्राप्त होते हैं अर्थात् आत्माके प्रदेशोंका संकोच करते हैं और यह सब करते हुए वे अतिशय पूज्य गिने जाते हैं ।।१९।। वे सर्वज्ञ भगवान् समस्त लोकको पूर्ण कर उसके एक-एक समय बाद ही प्रतर अवस्थाको और फिर क्रमसे एक-एक समय बाद संकोच करते हुए कपाट तथा दण्ड अवस्थाको प्राप्त होकर स्वशरीरमें प्रविष्ट हो जाते हैं ।।१९२।। उस समय वे केवली भगवान् अघातिया कोको स्थितिके असंख्यात भागोंको नष्ट कर देते हैं और इसी प्रकार अशुभ कर्मोंके अनुभाग अर्थात् फल देनेकी शक्तिके भी अनन्त भाग नष्ट कर देते हैं ।।१९३॥ तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में योगरूपी आस्रवका निरोध करते हुए काययोगके आश्रयसे वचनयोग और मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं और फिर काययोगको भी सूक्ष्म कर उसके आश्रयसे होनेवाले सूक्ष्म क्रियापाति नामक तीसरे शुक्लध्यानका चिन्तवन करते हैं ॥१९४-१९५।। तदनन्तर जिनके समस्त योगोंका बिलकुल ही निरोध हो गया है ऐसे वे योगिराज हरप्रकारके आस्रवासे रहित होकर समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति नामके चौथे शुक्लध्यानको प्राप्त होते हैं ॥१९६।। जिनेन्द्र भगवान् उस अतिशय निर्मल चौथे शुक्लध्यानको अन्तमुहूर्त तक धारण करते हैं और फिर समस्त कर्मोके अंशोंको नष्ट कर निर्वाण अवस्थाको प्राप्त १. सम्पूर्णज्ञानी । २. लोकपूरणानन्तरे । ३. उपसंहारावस्थाम् । ४. कवाट दण्डं च प०, द०, ल०, म०, इ०, स० । कपाटदण्डं च अ०,। ५. वाक् च मनश्च वाङ्मनसे ते । (चिन्त्योऽयं प्रयोगः ) वाङमनसी ल०, म०। ६. बादरकाययोगाश्रयात् । तमाश्रित्य इत्यर्थः । ७. वाङ्मनससूक्षमीकरणे आश्रयभूतं बादरकाय. योगमित्यर्थः। ८. स्वकालपर्यन्तविनाशरहितम् । ९. - योगः योगी स विगतास्रवः ल., म.। १०. नाशरहितम् । ११. विधूता ल०, म० । १२. मुक्तो भवति ।

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