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एकविंश पर्व भाव्यानं स्यादनुध्यानमनित्यत्वादिचिन्तनैः । ध्येयं स्यात् परमं तस्वमवा मनसगोचरम् ॥२२८॥ स्मृतिजीवादितत्वानां याथात्म्यानुस्मृति: स्मृता । गुणानुस्मरणं वा स्यात् सिद्धार्हत्परमेष्ठिनाम् ॥२२९॥ फलं यथोक्तं बीजानि वक्ष्यमाणान्यनुक्रमात् । प्रत्याहारस्तु तस्योपसंहतो चित्तनिवृतिः ॥२३०॥ अकारादिहकारान्तरेफमध्यान्तबिन्दुकम । ध्यायन् परमिदं बीजं मुक्त्यर्थी नावसीदति ॥२३१॥ षडक्षरात्मकं बीजमिवादियो नमोऽस्विति । ध्यात्वा मुमुक्षुराईन्स्यमनन्तगुणमृच्छति ॥२३२॥ नमः सिद्धेभ्य इत्येतद्दशार्धस्तवनाक्षरम । जपाप्येषु मण्यारमा स्वेष्टान् कामानवाप्स्यति ॥२३३॥ अष्टाक्षरं परं बोजं नमोऽहत्परमेष्ठिने । इतीदमनुसस्मृत्य पुनर्दुःखं न पश्यति ॥२३४॥ यत्षोडशाक्षरं बीजं सर्वबीजपदान्वितम् । तस्ववित्तदनुध्यायन् ध्रुवमेष मुमुक्षते ॥२३५॥ 'पञ्च ब्रह्ममयैर्मन्त्रैः सकलीकृत्यनिष्कलम् । परं तस्वमनुध्यायन् योगी स्याद् ब्रह्म तत्त्ववित्॥२३६॥
योगिनः परमानन्दो योऽस्य स्याञ्चित्त निवृतेः । स एवैश्वर्य"पर्यन्तो योगजाः किमुतर्द्धयः ॥२३७॥ कहलाती है ॥२२७।। अनित्यत्य आदि भावनाओंका बार-बार चिन्तवन करना आध्यान कहलाता है तथा मन और वचनके अगोचर जो अतिशय उत्कृष्ट शुद्ध आत्मतत्त्व है वह ध्येय कहलाता है ।।२२८।। जीव आदि तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका स्मरण करना स्मृति कहलाती है अथवा सिद्ध और अर्हन्त परमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करना भी स्मृति कहलाती है ॥२२९॥ ध्यानका फल ऊपर कहा जा चुका है, बीजाक्षर आगे कहे जायंगे और मनकी प्रवृत्तिका संकोच कर लेनेपर जो मानसिक सन्तोष प्राप्त होता है उसे प्रत्याहार कहते हैं ।२३०॥ जिसके आदिमें अकार है अन्तमें हकार है मध्यमें रेफ.है और अन्तमें बिन्दु है ऐसे अहं इस उत्कृष्ट बीजाक्षरका ध्यान करता हुआ मुमुक्षु पुरुप कभी भी दुःखी नहीं होता ॥२३१।। अथवा 'अर्हद्भयो नमः' अर्थात् 'अर्हन्तोंके लिए नमस्कार हो' इस प्रकार छह अक्षरवाला जो बीजाक्षर है उसका ध्यान कर मोक्षाभिलाषी मुनि अनन्त गुणयुक्त अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त होता है ।।२३२॥ अथवा जप करने योग्य पदार्थो में-से 'नमः सिद्धेभ्यः' अर्थात् 'सिद्धोंके लिए नमस्कार हो इस प्रकार सिद्धोंके स्तवन स्वरूप पाँच अक्षरोंका जो भव्य जीव जप करता है वह अपने इच्छित पदार्थोंको प्राप्त होता है अर्थात् उसके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं।।२३३।। अथवा 'नमोऽहत्परमेष्ठिने' अर्थात् 'आहन्त परमेष्ठीके लिए नमस्कार हो' यह जो आठ अक्षरवाला परमवीजाक्षर है उसका चिन्तवन करके भी यह जीव फिर दुःखोंको नहीं देखता है अर्थात् मुक्त हो जाता है।।२३४॥ तथा 'अहंत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः' अर्थात् 'अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु इन पाँचों परमेष्ठियोंके लिए नमस्कार हो' इस प्रकार सब बीज पदोंसे सहित जो सोलह अक्षरवाला बीजाक्षर है उसका ध्यान करनेवाला तत्त्वज्ञानी मुनि अवश्य ही मोक्षको प्राप्त होता है ।।२३५।। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इस प्रकार पंचब्रह्मस्वरूप मन्त्रोंके द्वारा जो योगिराज शरीररहित परमतत्त्व परमात्माको शरीरसहित कल्पना कर उसका बार-बार ध्यान करता है वही ब्रह्मतत्त्वको जाननेवाला कहलाता है ।।२३६।। ध्यान करनेवाले योगीके चित्तके सन्तुष्ट होनेसे जो परम आनन्द होता है वही सबसे अधिक ऐश्वर्य है फिर योगसे होनेवाली अनेक ऋद्धियोंका तो कहना ही क्या है ? भावार्थ-ध्यानके प्रभावसे हृदयमें जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है वही ध्यानका सबसे उत्कृष्ट फल है और अनेक
१. आत्मतत्त्वम् । २. अवाङ्मानस ल०, म० । ३. धर्म्यध्यानादी प्रोक्तम् । ४. योगस्य । ५. चित्तप्रसादः, प्रसन्नता । ६. अकारादि इत्यनेन वाक्येन अहम् इति बीजपदं ज्ञातव्यम् । ७. संक्लिष्टो न भवति । ८. पञ्चाक्षरबीजम् । ९. 'अहंतसिद्ध आइरियउवज्झायसाहू' इति । १०. मोक्तुमिच्छति । ११. पंचपरमेष्ठि स्वरूपैः । १२. सशरोरीकृत्य । १३. अशरीरम् । आत्मानम् । १४. परब्रह्मस्वरूपवेदो। १५. चित्तप्रसादाद् । १६. ऐश्वर्य परमावधिः । १७. अत्यल्पा इत्यर्थः।