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एकविंश पर्व 'तस्वपुद्गलवादेऽपि देह'पुद्गलतस्वयोः । तस्यान्यस्वाधवक्तव्यसंगराड्यातुरस्थितः ॥२४॥ विध्यासापूर्विकाध्यानप्रवृत्ति त्रयुज्यते । न चासतः खपुष्पस्य काचिद् गन्धादिकल्पना ॥२४६॥ "विज्ञप्तिमात्रवादे चज्ञप्ते स्त्येव गोचरः । ततो निर्विषयाज्ञप्तिः क्वारमान विभूयात् कथम् ॥२४॥
नियममें जीवको सन्तानोंका समुदाय भी क्षणिक ही होगा इसलिए उस दशामें भी ध्यान सिद्ध नहीं हो सकता। इसके सिवाय ध्यान उस पदार्थका किया जाता है जिसका पहले कभी अनुभव प्राप्त किया हो, परन्तु क्षणिक पक्षमें अनुभव करनेवाला जीव और अनुभूत पदार्थ दोनों ही नष्ट हो जाते हैं अतः पुनः स्मरण कौन करेगा और किसका करेगा इन सब आपसियोंको लक्ष्य कर ही आचार्य महाराजने कहा है कि क्षणिकैकान्त पक्षमें ध्यानकी भावना ही नहीं हो सकती।
__ जिस प्रकार एक पुरुषके द्वारा अनुभव किये हुए पदार्थका स्मरण दूसरे पुरुषको नहीं हो सकता क्योंकि वह उससे सर्वथा भिन्न है इसी प्रकार अनुभव करनेवाले मूलभूत जीवके नष्ट हो जानेपर उसके द्वारा अनुभव किये हुए पदार्थका स्मरण उनकी सन्तान प्रतिसन्तानको नहीं हो सकता क्योंकि मूल पदार्थका निरन्वय नाश माननेपर सन्तान प्रतिसन्तानके साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रह जाता। अनुभूत पदार्थके स्मरणके बिना ध्यान करनेकी इच्छाका होना असम्भव है, ध्यानकी इच्छाके बिना ध्यान नहीं हो सकता, और ध्यानके बिना उसके फलस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति भी नहीं हो सकती। तथा सम्यकदृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यक्पचन, सम्यककर्मान्त, सम्यआजीव, सम्यकव्यायाम, सम्यकस्मृति और सम्यक्समाधि इन आठ अंगोंकी भावना भी नहीं हो सकती। इसलिए जीवको अनित्य माननेसे भी ध्यान(योग) को सिद्धि नहीं हो सकती ॥२४३-२४४॥ इसी प्रकार पुदगलवाद आत्माको पुद्गलरूप माननेवाले वात्सीपुत्रियोंके मतमें देह और पुद्गलतत्त्वके भेद-अभेद और अवक्तव्य पक्षोंमें ध्याताकी सिद्धि नहीं हो पाती। अतः ध्यानकी इच्छापूर्वक ध्यानप्रवृत्ति नहीं बन सकती। सर्वथा असत् आकाशपुष्पमें गन्ध आदिकी कल्पना नहीं हो सकती। तात्पर्य यह कि पुद्गलरूप आत्मा यदि देहसे भिन्न है तो पृथक् आत्मतत्त्व सिद्ध हो जाता है। यदि अभिन्न है तो देहात्मवादके दूषण आते हैं। यदि अवक्तव्य है तो उसके किसी रूपका निर्णय नहीं हो सकता और उसे 'अवक्तव्य' इस शब्दसे भी नहीं कह सकेंगे। ऐसी दशामें ध्यानकी इच्छा प्रवृत्ति आदि नहीं बन सकते। इसी प्रकार विज्ञानाद्वैतवादियोंके मतमें भी ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि उनका सिद्धान्त है कि संसारमें विज्ञानको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं है । परन्तु उनके इस सिद्धान्तमें विज्ञानका कुछ भी विषय शेष नहीं रहता। इसलिए विषयके अभावमें विज्ञान स्व-स्वरूपको कहाँ धारण कर सकेगा ? भावार्थ-विज्ञान उसीको कहते हैं जो किसी ज्ञेय (पदार्थ) को जाने परन्तु विज्ञानाद्वैतवादी विज्ञानको छोड़कर और किसी पदार्थकी सत्ता स्वीकृत नहीं करते इसलिए ज्ञेय ( जानने योग्य )-पदार्थोके बिना
१. जीवभूतचतुष्टयवादे भूतचतुष्टयसमष्टिरेव नान्यो जीव इति वादे । सथा अ०, ५०, ल०, म०, द०, ., स.। तथेति पाठान्तरमिति 'त' पुस्तकस्यापि टिप्पण्यां लिखितम् । २. देहि ब०। ३. एकत्वनानात्ववस्तुत्वप्रमेयस्वादीनामवक्तव्यप्रतिज्ञायाः। ४. अभावात् । ५. भूतचतुष्टयवादे । ६. अविद्यमानस्य गगनारविदस्य । अयं धातुरस्थितः दृष्टान्तः । ७. विज्ञानाद्वैतवादिनो ध्यान न संगच्छत इत्याह । ८. -वादेऽपि द.। ९. विषयः । १०. स्वम् । शानमित्यर्थः ।