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एकविंशं पर्व क्षुदादिवेदनाभावानेषां विषयकामिना' । किमु सेवेत भैषज्यं स्वस्थावस्थः सुधीः पुमान् ॥२०॥ न तस्सुखं परद्रव्यसंबन्धादुपजायते । नित्यमव्ययमक्षय्यमात्मोत्थं हि परं शिवम् ॥२०९॥ स्वास्थ्यं चेत्सुखमतेषामदोऽस्त्यानन्त्यमाश्रितम् । ततोऽन्यच्चेत सुखं नाम न किंचिद् भुवनोदरे॥२१०॥ सकलक्लेशनिर्मुको निर्मोहो निरुपद्रवः । कनासौ बाध्यते सूक्ष्मस्तदस्यास्यन्तिकं सुखम् ॥२१॥ इदं ध्यानफलं प्राहुरानन्त्यमृषिपुङ्गवाः । तदर्थ हि तपस्यन्ति मुनयो वातवल्कला: ।। २१२॥ यद्वद् वाताहताः सद्यो विलीयन्ते घनावनाः । तद्वत्कर्मवना यान्ति लयं ध्यानानिलाहताः ॥२१३॥ सर्वागीणं विषं यद्वन्मन्त्रशक्त्या प्रकृप्यते । तद्वत्कर्मविषं कृत्स्नं ध्यानशक्त्यापसार्यते ॥२१॥ ध्यानस्यैव तपोयोगाः शेषाः परिकरा मताः । ध्यानाभ्यासे ततो यन्नः शश्वत्कार्यों मुमुक्षुभिः ॥२१५॥ इति ध्यानविधि श्रुत्वा तुतोप मगधाधिपः । तदा विबुद्धमस्यासीत्तमोऽपायान्म नोऽम्बुजम् ॥२१६॥
यथार्थमें केवली भगवान उस अतीन्द्रिय सुखको ही उत्कृष्ट सुख बतलाते हैं ।।२०७।। क्षुधा आदि वेदनाओंका अभाव होनेसे उनके विषयोंकी इच्छा नहीं होती सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुप होगा जो स्वस्थ होनेपर भी ओपधियोंका सेवन करता हो ॥२०८।। जो सुख पर-पदार्थोके सम्बन्धसे होता है वह सुख नहीं है, किन्तु जो शुद्ध आत्मासे उत्पन्न होता है, नित्य है, अविनाशी है और भयरहित है वहीवास्तवमें उत्तम सख है॥२०९॥ यदि स्वा (समस्त इच्छाओंका अपनी आत्मामें ही समावेश रहना-इच्छाजन्य आकुलताका अभाव होना) हो सुख कहलाता है तो वह अनन्त सुख सिद्ध भगवानके रहता ही है और यदि स्वास्थ्यके सिवाय किसी अन्य वस्तुका नाम सुख है तो वह सुख लोकके भीतर कुछ भी नहीं है । भावार्थ-विपयोंकी इच्छा अर्थात् आकुलताका न होना ही सुख कहलाता है सो ऐसा सुख सिद्ध परमेष्ठीके सदा विद्यमान रहता है। इसके सिवाय यदि किसी अन्य वस्तुका नाम सुख माना जाये तो वह सुख नामका पदार्थ लोकमें किसी जगह भी नहीं है ऐसा समझना चाहिए ॥२१॥ वे सिद्ध भगवान् समस्त क्लेशोंसे रहित हैं, मोहरहित हैं, उपद्रवरहित हैं और सूक्ष्म हैं इसलिए वे किसके द्वारा बाधित हो सकते हैं-उन्हें कौन बाधा पहुँचा सकता है अर्थात् कोई नहीं । इसीलिए उनका सुख अन्तरहित कहा जाता है ।।२१।। ऋपियोंमें श्रेष्ठ गणधरादि देव इस अनन्त सुखको हो ध्यानका फल कहते हैं और उसी सुखके लिए ही मुनि लोग दिगम्बर होकर तपश्चरण करते हैं ।।२१२।। जिस प्रकार वायुसे टकराये हुए मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार ध्यानरूपी वायुसे टकराये हुए कर्मरूपी मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं | भावार्थ-उत्तम ध्यानसे ही कर्मोंका क्षय होता है ।।२१३।। जिस प्रकार मन्त्रकी शक्तिसे समस्त शरीरमें व्याप्त हुआ विप खींच लिया जाता है उसी प्रकार ध्यानकी शक्तिसे समस्त कर्मरूपी विष दूर हटा दिया जाता है ।।२१४|| बाकीके ग्यारह तप एक ध्यानके ही परिकर-सहायक माने गये हैं इसलिए मोक्षाभिलाषी जीवोको निरन्तर ध्यानका अभ्यास करने में ही प्रयत्न करना चाहिए ॥२१५।। इस प्रकार ध्यानकी विधि सुनकर मगधेश्वर राजा श्रेणिक बहुत ही सन्तुष्ट हुए, और उस समय अज्ञानरूपी अन्धकारके नष्ट हो जानेसे उनका मनरूपी कमल भी प्रफुल्लित हो उठा था ॥२१६।।
१. विषयषिता । २. सुखम् । ३. स्वस्वरूपावस्थायित्वम् । ४. मुन्वतः । ५. दिगम्बराः । वान्तवकला: ल०,ई.। ६. निरस्यते । ७. विकसितम्। ८. अज्ञान ।