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आदिपुराणम् प्रयोदशास्य प्रक्षीणाः कमांशाश्चरमै क्षणे । द्वासप्ततिरुपान्ते स्युरयोगपरमेष्ठिनः॥१९॥ निलेपो निष्कलः शुद्धो निाबाधो निरामयः। सूक्ष्मोऽव्यक्तस्तथाध्यक्तो मुक्तो लोकान्तमावसन् ॥१९९॥ ऊर्ध्वव्रज्यास्वभावत्वात् समयेनैव नीरजाः । लोकान्तं प्राप्य शुद्धात्मा सिन्दश्चूडामणीयते ॥२०॥ तत्र कर्ममलापायात् शुद्धिरात्यन्तिकी मता । शरीरापायतोऽनन्तं भवेत् सुखमतीन्द्रियम् ॥२०॥ निष्कर्मा विधुताशेषसांसारिकसुखासुखः । चरमाङ्गात् किमप्यूनपरिमाणस्तदाकृतिः ॥२०॥ अमूर्तोऽप्ययमन्त्या जसमाकारोपलक्षणात् । मूषागर्मनिरूद्धस्य स्थिति म्योम्नः पसमृशन् ।।२०३।। शारीरमानसाशेषदुःस्वबन्धनवर्जितः । निर्द्वन्द्वो निक्रियः शुद्धो गुणैरष्टाभिरन्वितः ॥२०॥ अभेद्यसंहतिर्लोकशिखरैकशिखामणिः । ज्योतिर्मयः परिप्राप्तस्वात्मा सिद्धः "सुखायते ॥२०५॥ कृतार्था निष्ठिताः सिद्धाः" कृतकृत्या निरामयाः। सूक्ष्मा निरञ्जनाश्चेति पर्यायाः "सिद्धिमापुषाम् ।
तेषामतीन्द्रियं सौख्यं दुःखप्रक्षयलक्षणम् । तदेव हि परं प्राहुः सुखमानन्स्यवेदिनः ॥२०७॥ हो जाते हैं ॥१९७।। इन अयोगी परमेष्ठीके चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें बहत्तर
और अन्तिम समयमें तेरह कर्मप्रकृतियोंका नाश होता है ।।१९८॥ वे जिनेन्द्रदेव चौदहवें गुणस्थानके अनन्तर लेपरहित, शरीररहित, शुद्ध, अव्याबाध, रोगरहित, सूक्ष्म, अव्यक्त, व्यक्त और मुक्त होते हुए लोकके अन्तभागमें निवास करते हैं ॥१९९॥ कर्मरूपी रजसे रहित होनेके कारण जिनकी आत्मा अतिशय शुद्ध हो गयी है ऐसे वे सिद्ध भगवान ऊर्ध्वगमन स्वभाव होनेके कारण एक समयमें ही लोकके अन्तभागको प्राप्त हो जाते हैं और वहाँपर चूड़ामणि रत्नके समान सुशोभित होने लगते हैं ॥२००॥ जो हर प्रकारके कर्मों से रहित हैं, जिन्होंने संसार सम्बन्धी सुख और दुःख नष्ट कर दिये हैं, जिनके आत्मप्रदेशोंका आकार अन्तिम शरीरके तुल्य है और परिमाण अन्तिम शरीरसे कुछ कम है, जो अमूर्तिक होनेपर भी अन्तिम शरीरका आकार होनेके कारण उपचारसे साँचेके भीतर रुके हुए आकाशकी उपमाको प्राप्त हो रहे हैं, जो शरीर और मनसम्बन्धी समस्त दुःखरूपी बन्धनोंसे रहित हैं, द्वन्द्वरहित हैं, क्रियारहित हैं, शुद्ध हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे सहित हैं, जिनके आत्मप्रदेशोंका समुदाय भेदन करने योग्य नहीं है, जो लोकके शिखरपर मुख्य शिरोमणिके समान सुशोभित हैं, जो ज्योतिस्वरूप हैं, और जिन्होंने अपने शुद्ध आत्मतत्त्वको प्राप्त कर लिया है ऐसे वे सिद्ध भगवान् अनन्त काल तक सुखी रहते हैं ।।२०१-२०५।। कृतार्थ, निष्ठित, सिद्ध, कृतकृत्य, निरामय, सूक्ष्म और निरञ्जन ये सब मुक्तिको प्राप्त होनेवाले जीवोंके पर्यायवाचक शब्द हैं, २०६।। उन सिद्धोंके समस्त दुःखोंके क्षयसे होनेवाला अतीन्द्रिय सुख होता है और
१. चरमक्षणे ट० । सातासातयोरन्यतमम् १, मनुष्यगति १, पञ्चेन्द्रियनामकर्म १, सुभग १, त्रस १, बादर १, पर्याप्तक १, आदेय १, यशस्कीति १, तीर्थकरत्व १, मनुष्यायु १, उच्चर्गोत्र १, मनुष्यानुपूर्व्य १, इति त्रयोदश कर्माशाः प्रक्षीणा बभवः । २. द्विचरमसमये शरीरपञ्चकबन्धनपञ्चकसंघातपञ्चकसंस्थानषटक. संहननषटकाङ्गोपाङ्गत्रयवर्णपञ्चकगन्धद्वयरसपञ्चकस्पर्शाष्टकस्थिरास्थिरशुभाशुभसुस्वरदुस्वरदेवगतिदेवगत्यानपूर्वीप्रशस्त-विहायोगति-अप्रशस्तविहायोगति-दुर्भगनिर्माण-अयशस्कीति-अनादेय-प्रत्येक-प्रत्येकापर्याप्ता गरुलघूपधाता परघातोच्छ्वासा सत्त्वरूपवेदनीयनीचैर्गोत्राणि इति द्वासप्ततिकर्माशा नष्टा बभवः । ३. ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वात् । ४. एकसमयेन । ५. चरमाङ्गाकृतिः । ६. चरमाङ्गसमाकारग्राहकात् । ७. अनुकुर्वन् । ८. निःपरिग्रहः । ९. स्वस्वरूपः । १०. सुखमनु भवति, सुखरूपेण परिणमत इत्यर्थः । ११. निष्पन्नाः । १२. स्वात्मोपलब्धिम् । सिद्धिमीयुषाम् प०, ल०, म०, द०, इ०, स०। शुद्धिमीयुषाम् अ०।१३. प्राप्तवताम् । १४. केवलज्ञानिनः ।