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आदिपुराणम्
अपि चोभूतसंवेगः प्राप्तनिर्वेदभावनः । वैराग्य भावनोत्कर्षात् पश्यन् भोगानतपंकान् ॥८८॥ २ 'सज्ञानभावनापास्त मिथ्याज्ञानतमो घनः । विशुद्धदर्शनापोढगाढमिध्यात्वशल्यकः ॥ ८९ ॥ क्रियानिःश्रेयसोदर्काः प्रपद्येोज्झितदुष्क्रियः । प्रोद्गतः करणीयेषु म्युत्सृष्टाकरणीयकः ॥९०॥ ari प्रत्यनीका ये दोषा हिंसानृतादयः । तानशेषानिराकृत्य व्रतशुद्विमुपेयिवान् ॥९१॥ स्वैरुदार तरैः क्षान्तिमार्द्रवार्जवलाघवैः । कषाय वैरिणस्तीधान् क्रोधादीन् विनिवर्तयन् ॥ ९२ ॥ अनित्यानशुचीन् दुःखान् पश्यन् भावाननात्मकान् । वपुरायुर्बलारोग्य यौवनातिविकल्पितान् ॥९३॥ समुत्सृज्य चिरा ंभ्यस्तान् भावान्' 'रागादिलक्षणान् । भावयन् ज्ञानवैराग्यभावनाः प्रागभाविताः । ९४ । भावनाभिरसंमूढो मुनिर्ध्यान स्थिरीभवेत् । ज्ञानदर्शनचारित्र वैराग्योपगताश्च ताः ॥९५॥ ""वाचनापृच्छने " सानुप्रेक्षणं " परिवर्तनम् । सद्धर्मदेशनं चेति ज्ञातव्या ज्ञानभावनाः ॥ ९६ ॥
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संवेग'' "प्रशमस्थैर्यमसंमूढत्वमस्मयः । श्रास्तिक्यमनु कम्पेति ज्ञेयाः सम्यक्त्व भावनाः ॥९७॥
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को सह लिया है ऐसे उत्तम मुनिको ध्याता कहते हैं ।। ८५-८७।। इसके सिवाय जिसके संसार से भय उत्पन्न हुआ है, जिसे वैराग्यकी भावनाएँ प्राप्त हुई हैं, जो वैराग्य-भावनाओंके उत्कर्षसे भोगोपभोगको सामग्रीको अतृप्ति करनेवाली देखता है, जिसने सम्यग्ज्ञानकी भावनासे मिथ्याज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकारको नष्ट कर दिया है, जिसने विशुद्ध सम्यग्दर्शनके द्वारा गाढ़ मिथ्यात्वरूपी शल्यको निकाल दिया है, जिसने मोक्षरूपी फल देनेवाली उत्तम क्रियाओंको प्राप्त कर समस्त अशुभ क्रियाएँ छोड़ दी हैं, जो करने योग्य उत्तम कार्योंमें सदा तत्पर रहता है, जिसने नहीं करने योग्य कार्योंका परित्याग कर दिया है, हिंसा, झूठ आदि जो व्रतोंके विरोधी दोष हैं उन सबको दूर कर जिसने व्रतोंकी परम शुद्धिको प्राप्त किया है, जो अत्यन्त उत्कृष्ट अपने क्षमा, मार्दव, आर्जव और लाघव रूप धर्मोंके द्वारा अतिशय प्रबल क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायरूपी शत्रुओंका परिहार करता रहता है। जो शरीर, आयु, बल, • आरोग्य और यौवन आदि अनेक पदार्थोंको अनित्य, अपवित्र, दुःखदायी तथा आत्मस्वभावसे अत्यन्त भिन्न देखा करता है, जिनका चिरकालसे अभ्यास हो रहा है ऐसे राग, द्वेष आदि भावोंको छोड़कर जो पहले कभी चिन्तवनमें न आयी हुई ज्ञान तथा वैराग्य रूप भावनाओंका चिन्तन करता रहता है और जो आगे कही जानेवाली भावनाओंके द्वारा कभी मोहको प्राप्त नहीं होता ऐसा मुनि ही ध्यानमें स्थिर हो सकता है। जिन भावनाओंके द्वारा वह मुनि मोहको प्राप्त नहीं होता वे भावनाएँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्यकी भावनाएँ कहलाती हैं ।। ८८- ९५||
जैन शास्त्रोंका स्वयं पढ़ना, दूसरोंसे पूछना, पदार्थके स्वरूपका चिन्तवन करना, श्लोक आदि कण्ठ करना तथा समीचीन धर्मका उपदेश देना ये पाँच ज्ञानकी भावनाएँ जाननी चाहिए ॥९६|| संसार से भय होना, शान्त परिणाम होना, धीरता रखना, मूढ़ताओंका त्याग करना, गर्व नहीं करना, श्रद्धा रखना और दया करना ये सात सम्यग्दर्शनकी भावनाएँ जानने
१. अतृप्तिकरान् । २. संज्ञान- द०, इ० । सज्ञान-ल० म० । ३. तमो बाहुल्यम् । ४. कर्तुं योग्येषु । ५. प्रतिकूलाः । ६. अत्युत्तमैः । ७. शौचः । ८. पर्यायरूपानर्घान् । ९. आत्मस्वरूपादन्यान् । १०. अनादिवासितान् । ११. पर्यायान् । १२. अक्षुभितः । १३. स्थिरो भवेत् ल० म० । १४. पठनम् । १५ प्रश्नः । १६. विचारसहितम् । चानुप्रेक्षणम् ल० म० । १७ परिचिन्तनम् । १८. संसारभीरुत्वम् । १९. रागादीनां बिगमः । २०. अखिलतत्त्वमतिः । २१. अखिलसत्त्वकृपा ।