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आदिपुराणम् बाचंच लामझानां संनिवेशः' पुरोदितः । प्रसञ्चवक्त्रता सौम्या दृष्टिश्चत्यादि लक्ष्यताम् ॥१६॥ फलं ध्यानवरस्यास्य विपुला निर्जनसाम् । शुभकर्मोदयोद्भूतं सुखं च विबुधेशिनाम् ॥१६२॥ स्वर्गापवर्गसंप्राप्तिं फलमस्य प्रचक्षते । साक्षारस्वर्गपरिप्राप्तिः पारम्पर्यात् परंपदम् ॥१६३॥ ध्यानेऽप्युपरतें धीमानमीक्ष्णं भावयेन्मुनिः । सानुप्रेक्षाः शुमोदर्का भवामावाय भावनाः ॥१६४॥ इत्युक्तलक्षणं भम्यं मगधाधीश निश्चिनु । शुक्लध्यानमितो वक्ष्य साक्षान्मुक्त्यङ्गमङ्गिनाम् ॥१६५॥ कषायमलविश्लेषात् शुक्लशब्दाभिधेयताम् । उपेयिवदिदं ध्यानं सान्तमेंदं निबोध में ॥१६६।। शुक्लं परमशुक्लं चेस्याम्नाय तद्विधोदितम् । छमस्थस्वामिकं पूर्व पर केवलिनां मतम् ॥१६७॥ द्वेधार्थ स्यात् पृथक्त्वादि वीचारान्तवितर्कणम् । तथैकत्वायवीचारपदान्तं च वितर्कणम् ॥१६८॥ इत्याद्यस्य भिदे स्यातामन्वों श्रुतिमाश्रिते । तदर्थव्यक्तये चैतत् तनामद्वय निर्वचः ॥१६९॥ पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद्विदुः । सवितक सवीचारं पृथक्त्वादिपदाइयम् ॥१७॥
जानेपर
अन्तरङ्ग-चिह्न हैं ॥१५९-१६०।। पहले कहा हुआ अङ्गोंका सन्निवेश होना अर्थात् पहले जिन पर्य आदि आसनोंका वर्णन कर चुके हैं उन आसनोंको धारण करना, मुखकी प्रसन्नता होना और दृष्टिका सौम्य होना आदि सब भी धर्म्यध्यानके बाह्यचिह्न समझना चाहिए॥१६१।। अशुभ कर्मोकी अधिक निर्जरा होना और शुभ कर्मोके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्र आदिका सुख प्राप्त होना यह सब इस उत्तम धर्म्यध्यानका फल है ॥१६२।। अथवा स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होना इस धर्म्यध्यानका फल कहा जाता है। इस धर्म्यध्यानसे स्वर्गकी प्राप्ति तो साक्षात् होती है परन्तु परम पद अर्थात मोक्षकी प्राप्ति परम्परासे होती है॥१६॥ ध्यान छट जा भी बुद्धिमान मुनिको चाहिए कि वह संसारका अभाव करने के लिए अनुप्रेक्षाओंसहित शुभ फल देनेवाली उत्तम-उत्तम भावनाओंका चिन्तवन करे ॥१६४॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे मगधाधीश, इस प्रकार जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसे इस धर्म्यध्यानका तू निश्चय कर-उसपर विश्वास ला। अब आगे शुक्लध्यानका निरूपण करूँगा जो कि जीवोंके मोक्ष प्राप्त होनेका साक्षात कारण है ॥१६५।। कषायरूपी मलके नष्ट होनेसे जो शाम ऐसे नामको प्राप्त हुआ है ऐसे इस शुक्लध्यानका अवान्तर भेदोंसे सहित वर्णन करता हूँ सो तू उसे मुझसे अच्छी तरह समझ ले ॥१६६।। वह शुक्ल ध्यान शुक्ल और परम शुक्लके भेदसे आगममें दो प्रकारका कहा गया है, उनमें से पहला शुक्लध्यान तो छमस्थ मुनियोंके होता है और दूसरा परम शुक्लध्यान केवली भगवान् ( अरहन्तदेव) के होता है ।।१६७। पहले शुक्लध्यानके दो भेद हैं, एक पृथक्त्ववितर्कवीचार और दूसरा एकत्ववितर्कवीचार ॥१६८।। इस प्रकार पहले शुक्लध्यानके जो ये दो भेद हैं, वे सार्थक नामवाले हैं। इनका अर्थ स्पष्ट करनेके लिए दोनों नामोंकी निरुक्ति (व्युत्पत्ति-शव्दार्थ) इस प्रकार समझना चाहिए ॥१६९।। जिस ध्यानमें वितर्क अर्थात् शास्त्रके पदोंका पृथक्-पृथक् रूपसे वीचार अर्थात् संक्रमण होता रहे उसे पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका शुक्लध्यान कहते हैं। भावार्थ-जिसमें अर्थ व्यंजन और योगोंका पृथक्-पृथक संक्रमण होता रहे अर्थात् अर्थको छोड़कर व्यंजन ( शब्द ) का और व्यंजनको छोड़कर अर्थका चिन्तवन होने लगे अथवा इसी प्रकार मन, वचन और काय इन तीनों योगोंका परिवर्तन होता रहे उसे पृथक्त्ववितर्कवीचार कहते
१. पल्यकादि । २. संप्राप्तिः इ०। ३. प्रचक्ष्यते इ.। ४. सम्पूर्णे सति । ५. महर्महः । १. मोक्षकारणम् । ७. प्राप्तम् । ८. मध्ये भेदम् । ९. निबोध जानीहि, मे मम संबन्धि ध्यानम् । निबोधये इति पाठे ज्ञापयामि । १०. परमागमे । ११. शक्लम् । १२. शुक्लम् । १३. पृथक्त्ववितर्कवीचारम् । १४. एकत्ववितर्कावीचारम् । १५. भेदो। १६. संज्ञाम् ।