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आदिपुराणम् नियताकृतिरप्येष विश्वरूपः स्वचिद्गुणैः । संक्रान्ता शेष विज्ञेयप्रतिबिम्बानुकारतः ॥१२५॥ विश्वव्यापी स विश्वार्थग्यापि विज्ञानयोगतः । विश्वास्यो विश्वतश्चक्षुर्विश्वलोकशिखामणिः ॥१२॥ संसारसागराद् दूरमुत्तीर्णः सुखसाद्भवः । विधूतसकलक्लेशो विच्छिन्नमवबन्धनः ॥१२७॥ निर्भयश्च निराकाझी निराबोधो निराकुलः । नियंपेक्षो निरातङ्को नित्यो निष्कर्मकल्मषः ॥१२८॥ नवकेवललब्ध्यादिगुणारब्धवपुष्टरः । अभेद्य संहतिर्वघ्रशिलोत्कीर्ण इवाचलः ॥१२९॥ स एवं लक्षणो ध्येयः परमारमा परः पुमान् । परमेष्ठी परं तस्वं परमज्योतिरक्षरम् ॥ १३०॥ साधारणमिदं ध्येयं ध्यानयोर्धय॑शुक्लयोः । विशुद्धि स्वामिभेदात्त तद्विशेषोऽवधार्यताम् ॥१३॥ प्रशस्तप्रणिधानं" यत् स्थिरमेकन वस्तुनि । तद्ध्यानमुक्तं मुक्त्यङ्ग धयं शुक्लमिति द्विधा ॥१३२॥
सर्वसामर्थ्यवान् हैं, जो यद्यपि निश्चित आकारवाले हैं तथापि अपने चैतन्यरूप गुणोंके द्वारा प्रतिबिम्बित हुए समस्त पदार्थोंके प्रतिबिम्ब रूप होनेसे विश्वरूप हैं अर्थात् संसारके सभी पदार्थोंके आकार धारण करनेवाले हैं, जो समस्त पदार्थों में व्याप्त होनेवाले केवलज्ञानके सम्बन्धसे विश्वव्यापी कहलाते हैं, समवसरण-भूमिमें चारों ओर मुख देखनेके कारण जो विश्वास्य ( विश्वतोमुख ) कहलाते हैं, संसारके सब पदार्थोंको देखनेके कारण जो विश्वतश्चक्षु (सब ओर हैं नेत्र जिनके ऐसे ) कहलाते हैं, तथा सर्वश्रेष्ठ होनेके कारण जो समस्त लोकके शिखामणि कहलाते हैं, जो संसाररूपी समुद्रसे शीघ्र ही पार होनेवाले हैं, जो सुखमय हैं, जिनके समस्त क्लेश नष्ट हो गये हैं और जिनके संसाररूपी बन्धन कट चके है. जो निर्भय हैं, नि:स्पृह हैं, बाधारहित हैं, आकुलतारहित हैं, अपेक्षारहित हैं, नीरोग हैं, नित्य हैं, और कर्मरूपी कालिमासे रहित हैं; क्षायिक, ज्ञान, दर्शन, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र इन नौ केवललब्धि आदि अनेक गुणोंसे जिनका शरीर अतिशय उत्कृष्ट है, जिनका कोई भेदन नहीं कर सकता और जो वनकी शिलामें उकेरे हुए अथवा वनकी शिलाओंसे व्याप्त हुए पर्वतके समान निश्चल हैं-स्थिर हैं, इस प्रकार जो ऊपर कहे हुए लक्षणोंसे सहित हैं, परमात्मा हैं, परम पुरुष रूप हैं, परमेष्ठी हैं, परम तत्त्वस्वरूप हैं, परमज्योति (केवलज्ञान) रूप हैं और अविनाशी हैं ऐसे अईन्तदेव ध्यान करने योग्य हैं ॥१२१-१३०॥ अभीतक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थाका वर्णन किया गया है वे सब धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान इन दोनों ही ध्यानोंके साधारण ध्येय हैं अर्थात् ऊपर कहे हुए पदार्थोंका दोनों ही ध्यानोंमें चिन्तवन किया जा सकता है। इन दोनों ध्यानोंमें विशुद्धि और स्वामीके भेदसे ही परस्पर में विशेषता समझनी चाहिए । भावार्थ-धर्मध्यानकी अपेक्षा शुक्लध्यानमें विशुद्धिके अंश बहुत अधिक होते हैं, धर्म्य ध्यान चौथे गुणस्थानसे लेकर श्रेणी चढ़नेके पहले-पहले तक ही रहता है और शुक्लध्यान श्रेणियों में ही होता है। इन्हीं सब बातोंसे उक्त दोनों ध्यानों में विशेषता रहती है ॥१३१।। जो किसी एक ही वस्तुमें परिणामोंकी स्थिर और प्रशंसनीय एकाग्रता होती है उसे ही ध्यान कहते हैं, ऐसा ध्यान हो मुक्तिका कारण होता है। वह ध्यान धर्म्यध्यान और
१. संलग्न । २. निःशेषज्ञेयवस्तु । ३. विश्वतोमुखः । ४. सुखाधीनभूतः। सुखसाद्भवन् ल०, म०, द० । ५. धनादिवाञ्छारहितः । ६. किमप्यनपेक्ष्य भक्तानां सुखकारीत्यर्थः । ७. कर्ममलरहितः । ८. अतिशयवपुः ‘अतिशयार्थे तरम् भवति' । ९. अभेद्यशरीरः । १०. सकषायस्वरूपा अकषायस्वरूपा च विशुद्धिः । अथवा परिणामः, स्वामी कर्ता विशुद्धिश्व स्वामी च तयोर्भेदात् । ११. ध्यानविशेषः । १२. परिणामः ।