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आदिपुराणम वज्रकाया महासत्त्वाः' सर्वावस्थान्तरस्थिताः । श्रूयन्ते ध्यानयोगेन' संप्राप्ताः पदमव्ययम् ॥७३॥ बाहुण्यापेक्षया तस्मादवस्था द्वयसंगरः । सक्तानां तूपसर्गायैस्तद्वैचित्र्यं न दुष्यति ॥७॥ देहावस्था पुनयेव न स्याद् ध्यानोपरोधिनी । तदवस्थो मुनिायेत् स्थित्वा सिस्वाधिशय्य वा ॥७५॥ देशादिनियमोऽप्येवं प्रायों वृत्तिन्यपाश्रयः । कृतात्मनां तु सर्वोऽपि देशादिनिसिद्धये ॥७६॥ स्त्रीपशुक्लीवसंसक्तरहितं विजनं मुनेः । "सर्वदैवोचितं स्थानं ध्यानकाले विशेषतः ॥७॥ वसतोऽस्य जनाकीणे विषयानमिपश्यतः । बाहुल्यादिन्द्रियार्थानां जातु व्यग्रीमन्मनः ॥७॥
पर्यक आसन अधिक सुखकर माना जाता है ॥७२॥ आगममें ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर वज्रमयी है और जो महाशक्तिशाली हैं ऐसे पुरुष सभी आसनोंसे विराजमान होकर ध्यानके बलसे अविनाशी पद (मोक्ष) को प्राप्त हुए हैं ।।३।। इसलिए कायोत्सर्ग और पर्यक ऐसे दो आसनोंका निरूपण असमर्थ जीवोंकी अधिकतासे किया गया है। जो उपसर्ग आदिके सहन करनेमें अतिशय समर्थ हैं ऐसे मुनियोंके लिए अनेक प्रकारके आसनोंके लगानेमें दोष नहीं है। भावार्थ-वीरासन, वनासन, गोदोहासन, धनुरासन आदि अनेक आसन लगानेसे कायक्लेश नामक तपकी सिद्धि होती अवश्य है पर हमेशा तप शक्तिके अनुसार ही किया जाता है। यदि शक्ति न रहते हुए भी ध्यानके समय दुःखकर आसन लगाया जाये तो उससे चित्त चंचल हो जानेसे मूल तत्त्व-ध्यानको सिद्धि नहीं हो सकेगी इसलिए आचार्यने यहाँपर अशक्त पुरुषोंकी बहुलता देख कायोत्सर्ग और पयक इन्हीं दो सुखासनोंका वर्णन किया है परन्तु जिनके शरीरमें शक्ति है, जो निषद्या आदि परीषहोंके सहन करनेमें समर्थ हैं उन्हें विचित्र-विचित्र प्रकारके आसनोंके लगानेका निषेध भी नहीं किया है । आसन लगाते समय इस बातका स्मरण रखना आवश्यक है कि वह केवल बाह्य प्रदर्शनके लिए न हो किन्तु कायक्लेश तपश्चरणके साथ-साथ ध्यानकी सिद्धिका प्रयोजन होना चाहिए। क्योंकि जैन शास्त्रों में मात्र बाह्य प्रदर्शनके लिए कुछ भी स्थान नहीं है और न उस आसन लगानेवालेके लिए कुछ आत्मलाभ ही होता है ।।७४।।
अथवा शरीरको जो-जो अवस्था (आसन) ध्यानका विरोध करनेवाली न हो उसी-उसी अवस्थामें स्थित होकर मुनियोंको ध्यान करना चाहिए। चाहें तो वे बैठकर ध्यान कर सकते हैं, खड़े होकर ध्यान कर सकते हैं और लेटकर भी ध्यान कर सकते हैं ।।७।। इसी प्रकार देश आदिका जो नियम कहा गया है वह भी प्रायोवृत्तिको लिये हुए है अर्थात् हीन शक्तिके धारक ध्यान करनेवालोंके लिए ही देश आदिका नियम है, पूर्ण शक्तिके धारण करनेवालोंके लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यानके साधन हैं ।।७६।। जो स्थान स्त्री, पशु और नपुंसक जीवोंके संसर्गसे रहित हो या एकान्त हो वही स्थान मुनियोंके सदा निवास करनेके योग्य होता है. और ध्यानके समय तो विशेष कर ऐसा ही स्थान योग्य समझा जाता है।।७। जो मुनि मनुष्योंसे भरे हुए शहर आदिमें निवास करते हैं और निरन्तर विषयोंको देखा करते हैं ऐसे मुनियोंका चित्त इन्द्रियोंके विषयों को अधिकता होनेसे कदाचित् व्याकुल हो सकता है
१. महामनोबलाः । २.-स्थिराः ट । सर्वासनान्तरस्थिरा । ३. ध्यानयोजनेन । ४. कायोत्सर्गपर्यङ्कासनद्वयप्रतिज्ञा । ५. तत्कायोत्सर्गविरहासनादिविचित्रताः । ६. दुष्टो न भवति । ७. उपविश्य । ८. प्रचुरवृत्तिसमाश्रयः। ९. निश्चितात्मनाम् । १० संसर्गरहितं रागिजनरहितं वा। ११. ध्यानरहितसर्वकालेऽपि । १२. कदाचित् ।