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एकविंश पर्व संकल्पवशगो मूढो वरिस्वष्टानिष्टतां नयेत् । रागद्वेषो ततस्ताभ्यां बन्धं दुर्मोचमश्नुते ॥२४॥ संकल्पो मानसी वृत्तिविषयेष्वनुतर्षिणी । सैव दुष्प्रणिधानं यादपध्यानभतो विदुः ॥२५॥ तरमादाशयशुद्धयर्थमिष्टा तत्वार्थभावना । ज्ञानशुद्धिरतस्तस्यां ध्यानशुद्धिरुदाहता ॥२६॥ प्रशस्तमप्रशस्तं च ध्यानं संस्मर्यते द्विधा । शुभाशुभाभिसंधानात् प्रत्येकं तवयं द्विधा ॥२७॥ चतुर्धा तस्खलु ध्यानमित्याप्तैरनुवर्णितम् । आत रौद्रं च धम्यं च शुक्लं चेति विकल्पतः ॥२८॥ हयमा द्वयं विद्धि दुध्यानं भववर्धनम् । उत्तरं द्वितयं ध्यानमुपादयं तु योगिनाम् ॥२९॥ तषामन्तभिंदा वक्ष्ये लक्ष्म निर्वचनं तथा । बलाधानमधिष्ठानं कालभावफलान्यपि ॥३०॥ ऋते भवभयार्त स्याद् ध्यानमायं चतुर्विधम् । इष्टानवाप्स्यनिष्टाप्तिनिदानासात हेतुकम् ॥३३॥ विप्रयोगे मनोज्ञस्य तत्संयोगानु तर्पणम् । अमनोज्ञार्थसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम् ॥३२॥ निदानं भोगकाहशोरथं संक्लिष्टस्यान्यभोगतः । स्मृत्यन्वाहरणं चैव वेदनातस्य तत्क्षय ॥३३॥
करता है ।।२३॥ संकल्प-विकल्पके वशीभूत हुआ मूर्ख प्राणी पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट समझने लगता है उससे उसके राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और राग-द्वेषसे जो कठिनतासे छूट सके ऐसे कर्मबन्धको प्राप्त होता है ॥२४॥ विषयोंमें तृष्णा बढ़ानेवाली जो मनकी प्रवृत्ति है वह संकल्प कहलाती है उसी संकल्पको दुष्प्रणिधान कहते हैं और दुष्प्रणिधानसे अपध्यान होता है ।।२५।। इसलिए चित्तकी शुद्धिके लिए तत्त्वार्थकी भावना करनी चाहिए क्योंकि तत्त्वार्थकी भावना करनेसे ज्ञानकी शुद्धि होती है और ज्ञानकी शुद्धि होनेसे ध्यानकी शुद्धि होती है ।२६।। शुभ और अशुभ चिन्तवन करनेसे वह ध्यान प्रशस्त तथा अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका स्मरण किया जाता है। उस प्रशस्त तथा अप्रशस्त ध्यानमें से भी प्रत्येकके दो दो भेद हैं। भावार्थ-जो ध्यान शुभ परिणामोंसे किया जाता है उसे प्रशस्त ध्यान कहते हैं और जो अशुभ परिणामोंसे किया जाता है उसे अप्रशस्त ध्यान कहते हैं। प्रशस्त ध्यानके धर्म्य और शुक्ल ऐसे दो भेद हैं तथा अप्रशस्त ध्यानके आर्त और रौद्र ऐसे दो भेद हैं ॥२७॥ इस प्रकार जिनेन्द्र भगवानने वह ध्यान आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्लके भेदसे चार प्रकारका वर्णन किया है ।।२८।। इन चारों ध्यानों में से पहलेके दो अर्थात् आर्त और रौद्र ध्यान छोड़नेके योग्य हैं क्योंकि वे खोटे ध्यान हैं और संसारको बढ़ानेवाले हैं तथा आगेके दो अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ध्यान मुनियोंको भी ग्रहण करने योग्य हैं ।।२९।। अघ इन ध्यानोंके अन्तर्भेद, उनके लक्षण, उनकी निरुक्ति, उनके पलाधान, आधार, काल, भाव और फलका निरूपण करेंगे ॥३०॥
जो ऋत अर्थात् दुःखमें हो वह पहला आर्तध्यान है वह चार प्रकारका होता है-पहला इष्ट वस्तुके न मिलनेसे, दूसरा अनिष्ट वस्तुके मिलनेसे, तीसरा निदानसे और चौथा रोग आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुआ । किसी इष्ट वस्तु के वियोग होनेपर उनके संयोगके लिए बार-बार चिन्तवन करना सो पहला आर्तध्यान है । इसी प्रकार किसी अनिष्ट वस्तुके संयोग होनेपर उसके वियोगके लिए निरन्तर चिन्तवन करना सो दूसरा आर्तध्यान है ॥३२।। भोगोंकी आकांक्षासे जो ध्यान होता है वह तीसरा निदान नामका आर्तध्यान कहलाता है। यह ध्यान दूसरे पुरुषोंकी भोगोपभोगकी सामग्री देखनेसे संक्लिष्ट चित्तवाले जीवके होता है और किसी वेदनासे पीडित मनुष्यका उस वेदनाको नष्ट करनेके लिए जो बार-बार चिन्तवन
१. इष्टानिष्टनयनात् । २. वाञ्छावती। ३. दुष्टचिन्ता। दु:प्रणिधानं अ०, ५०। ४. अवान्तरभेदान् । - नन्तभिंदा ल०, म०, इ०, अ०,१०, स०। ५. बलज़म्भणम् । ६. इष्टवियोगहेतुकमनिष्टसंयोगहेतुकं निदानहेतुकम् असाताहेतुकमिति । ७. - नाशानहे - ल०, म०। ८. वाञ्छा । ९. स्मृत्यविच्छिन्नप्रवर्तनम् । चिन्ताप्रबन्धमित्यर्थः ।