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आदिपुराणम् हर्षामादिवत् सोऽयं चिद्धर्मोऽप्यवबोधितः । प्रकाशते 'विभिन्नारमा कथंचित् स्तिमितात्मकः ॥१६॥ ध्यानस्यालम्बनं कृत्स्नं जगत्तस्वं यथास्थितम् । विनारमात्मीयसंकल्पादोदासीन्ये निवेशितम् ॥१७॥ अथवा ध्येयमध्यात्म तस्वं मुक्त तरात्मकम् । तत्तत्वचिन्तनं ध्यातुरुपयोगस्य शुद्धये ॥१८॥ उपयोगविशुद्धौ च यन्धहेतून् “म्युदस्यत । संवरो निर्जरा चैव ततो मुक्तिरसंशयम् ॥१९॥ मुमुक्षोातुकामस्य सर्वमालम्बनं जगत् । यद्यद्यथास्थितं वस्तु तथा तत्तद्वयवस्यतः ॥२०॥ किमत्र बहुना यो यः कश्चिद् भावः सपर्ययः । स सर्वोऽपि यथान्यायं ध्ययकोटिं विगाहते ॥२१॥ शुभामिसन्धि तो ध्याने स्यादेवं ध्येयकल्पना । प्रीत्यप्रीत्यभिसंधानादसद्ध्याने विपर्ययः ॥२२॥ अतसदिस्यतस्वज्ञो वैपरीत्येन भावयन् । प्रीत्यप्रीती समाधाय" संक्लिष्टं ध्यानमृच्छति ॥२३॥
जिस प्रकार सुख तथा क्रोध आदि भाव चैतन्यके ही परिणाम कहे जाते हैं परन्तु वे उससे भिन्न रूप होकर प्रकाशमान होते हैं-अनुभबमें आते हैं इसी प्रकार अन्तःकरणका संकोच करने रूप ध्यान भी यद्यपि चैतन्य (ज्ञान) का परिणाम बतलाया गया है तथापि वह उससे भिन्न रूप होकर प्रकाशमान होता है । भावार्थ-पर्याय और पर्यायीमें कथंचिद् भेदको विवक्षा कर यह कथन किया गया है ।।१६।। जगत्के समस्त तत्त्व जो जिस रूपसे अवस्थित हैं और जिनमें यह मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ ऐसा संकल्प न होनेसे जो उदासीन रूपसे विद्यमान हैं वे सब ध्यानके आलम्बन (विषय) हैं। भावार्थ-ध्यानमें उदासीन रूपसे समस्त पदार्थोंका चिन्तवन किया जा सकता है ।।१७।। अथवा संसारी और मुक्त इस प्रकार दो भेदवाले आत्म तत्त्वका चिन्तवन करना चाहिए क्योंकि आत्मतत्त्वका चिन्तवन ध्यान करनेवाले जीवके उपयोगकी विशुद्धिके लिए होता है ॥१८॥ उपयोगकी विशु द्धि होनेसे यह जीव बन्धके कारणोंको नष्ट कर देता है, बन्धके कारण नष्ट होनेसे उसके संवर और निर्जरा होने लगती है तथा संवर और निर्जराके होनेसे इस जीवको निःसन्देह मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है ॥१९॥ जो-जो पदार्थ जिस-जिस प्रकारसे अवस्थित हैं उसको उसी-उसी प्रकारसे निश्चय करनेवाले तथा ध्यानको इच्छा रखनेवाले मोक्षाभिलाषी पुरुषके यह समस्त संसार आलम्बन है। भावार्थराग-द्वेषसे रहित होकर किसी भी वस्तुका ध्यान कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।।२०।। अथवा इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है संक्षेपमें इतना ही समझ लेना चाहिए कि इस संसारमें अपनी-अपनी पर्यायों सहित जो-जो पदार्थ हैं वे सब आम्नायके अनुसार ध्येय कोटिमें प्रवेश करते हैं अर्थात् उन सभीका ध्यान किया जा सकता है ॥२१॥ इस प्रकार जो ऊपर ध्यान करने योग्य पदार्थोंका वर्णन किया गया है वह सब शुभ पदार्थका चिन्तवन करनेवाले ध्यानमें ही समझना चाहिए। यदि इष्ट अनिष्ट वस्तुओंका चिन्तवन किया जायेगा तो वह असद्ध्यान कहलायेगा और उसमें ध्येयकी कोई कल्पना नहीं की जाती अर्थात् असद्ध्यानका कुछ भी विपय नहीं है-कभी असध्यान नहीं करना चाहिए ॥२२।। जो मनुष्य तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप नहीं समझता वह विपरीत भावसे अतद्रप बस्तुको भी तप चिन्तवन करने लगता है और पदार्थोंमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि कर केवल संक्लेश सहित ध्यान धारण
१. वैभिन्नात्मा इति क्वचित् । २. आत्मतत्त्वम् । ३. मुक्तजीवसंसारजीवस्वरूपम् । ४. ज्ञानस्य । ५. निरस्यतः पुंसः । -नुदस्तः ल०, म० । ६. निश्चिन्वतः । ७. पदार्थः । ८. यथाप्रमाणम् । यथाम्नायं ल०, म०, द०, अ०, इ०, स०। ९. शुभाभिप्रायमाथित्य । शुभाभिसन्धिनि ल०, म०, द०। १०. ध्येयकल्पना भवतीत्यर्थः । ११. आथित्य ।