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एकविंशं पर्व
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घातः श्रेणिको नम्रो मुनिं पप्रच्छ गौतमम् । भगवन् बोद्धुमिच्छामि स्वतो ध्यानस्य विस्तरम् ॥१॥ किमस्य लक्षणं योगिन् के' भेदाः किं च निर्वाचः । किं स्वामिकं कियत्कालं किं हेतु फलमप्यदः ॥२॥ कोsस्य भावो भवेत् किं वा स्यादधिष्ठानमीशितः । भेदानां कानि नामानि कश्चैषामर्थ निश्चयः ॥३॥ कमालम्बनमेतस्य 'बाधानं च किं भवेत् । तदिदं सर्वमेवाहं बुभुस्से' वदतां वर ॥४॥ परं साधनमाम्नातं ध्यानं मोक्षस्य साधने । " ततोऽस्य " भगवन् ब्रूहि तत्वं गोप्यं यतीशिनाम् ॥५॥ इति पृष्टवते तस्मै भगवान् गौतमोऽब्रवीत् । प्र सरदशनाभीषु जलस्नपिततत्तनुः ॥६॥ यत्कर्मक्षपणे साध्ये साधनं परमं तपः । तप्ते" ध्यानाह्वयं सम्यगनुशास्मि यथाश्रुतम् ॥७॥ ऐकाग्रयेण निरोधो यश्चिसस्यैकत्र वस्तुनि । तद्ध्यानं वज्रकं ''यस्य भवेदान्तर्मुहूर्ततः ॥ ८ ॥ स्थिरमध्यवसानं यत्तद्यानं यच्चलाचलम् । 'सानुप्रेक्षाचवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ॥ ९ ॥ छद्मस्थेषु भवेदेतल्लक्षणं विश्वदृश्वनाम् । योगास्त्रवस्य संरोधे ध्यानत्वमुपचर्यते ॥ १० ॥
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अथानन्तर- श्रणिक राजाने नम्र होकर महामुनि गौतम गणधर से पूछा कि हे भगवन्, मैं आपसे ध्यानका विस्तार जानना चाहता हूँ || १|| हे योगिराज, इस ध्यानका लक्षण क्या है ? इसके कितने भेद हैं ? इसकी निरुक्ति ( शब्दार्थ ) क्या है ? इसके स्वामी कौन हैं ? इसका समय कितना है ? इसका हेतु क्या है ? और इसका फल क्या है ? ||२|| हे स्वामिन्, इसका भाव क्या है ? इसका आधार क्या है ? इसके भेदोंके क्या-क्या नाम हैं ? और उन सबका क्या-क्या अभिप्राय है ? ||३|| इसका आलम्बन क्या है और इसमें बल पहुँचानेवाला क्या है ? हे वक्ताओं में श्रेष्ठ, यह सब मैं जानना चाहता हूँ ॥ ४ ॥ मोक्षके साधनों में ध्यान ही सबसे उत्तम साधन माना गया है इसलिए हे भगवन्, इसका यथार्थ स्वरूप कहिए जो कि बड़े-बड़े मुनियोंके लिए भी गोप्य है ||५|| इस प्रकार पूछनेवाले राजा श्रेणिकसे भगवान् गौतम गणधर अपने दाँतोंकी फैलती हुई किरणोंरूपी जलसे उसके शरीरका अभिषेक करते हुए कहने लगे ॥ ६ ॥ कि हे राजन्, जो कमौके क्षय करनेरूप कार्यका मुख्य साधन है ऐसे ध्यान नामके उत्कृष्ट तपका मैं तुम्हारे लिए आगमके अनुसार अच्छी तरह उपदेश देता हूँ ॥७॥
तन्मय होकर किसी एक ही वस्तुमें जो चित्तका निरोध कर लिया जाता है उसे ध्यान कहते हैं। वह ध्यान वज्रवृषभनाराचसंहननवालोंके अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है ||८|| जो चित्तका परिणाम स्थिर होता है उसे ध्यान कहते हैं और जो चन्चल रहता है उसे अनुप्रेक्षा, चिन्ता, भावना अथवा चित्त कहते हैं ||९|| यह ध्यान छद्मस्थ अर्थात् बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों तक के होता है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती सर्वज्ञ देवके भी योगके बल
१. अथ । २. किम्भेदाः त०, ब० । ३. कीदृक् स्वामी यस्य तत् । ४. कीदृशे हेतुफले यस्य तत् । ५. ध्यानम् । ६. भो स्वामिन् । ७ नाम्नाम् । ८. बलजृम्भणम् । ९. बोद्धुमिच्छामि । १०. कारणात् । ११. ध्यानस्य । १२. रक्षणीयम् । ज्ञेयं अ० । १३. यदीशिनाम् १० । १४. किरण । १५. तव । १६. आगमानुसारेण । १७. अनन्यमनोवृत्त्या । १८. वज्रवृषभनाराचसंहननस्य । १९. अन्तमुहूर्त पर्यन्तम् । २० परिणामः । २१. चचलम् । २२. सविचारा । २३. कायवाङ्मनः कर्मरूपास्रवस्य ।