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विंश पर्व
युगपदथ 'नभस्तोऽनभि ताद् वृष्टिपातो
विजयति तदा स्म प्राङ्गणं लोकनाख्याः ।
समवसरणभूमेः शोधना येन विश्वग्
विततसलिलबिन्दुर्विश्व मर्तुर्जिनेशः ॥२७२॥ वसन्ततिलकम्
इथं तदा त्रिभुवने प्रमदं वितन्वन्
उद्भूत केवलरवेर्वृषभोदयाः
भासी जगज्जन हिताय जिनाधिपत्य
५.
"प्रख्यापकः सपदि तीर्थंकरानुभावः ॥२७३॥
इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भगवत्कैवल्योत्पत्तिवर्णनं नाम विंशतितम पर्व ॥ २०॥
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रहा था || २७१ || जिस समय यह सब हो रहा था उसी समय आकाशसे बादलोंके बिना ही होनेवाली मन्द मन्द वृष्टि लोकनाड़ीके आँगनको धूलिरहित कर रही थी । उस वृष्टिकी बूँदें चारों ओर फैल रही थीं जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो जगत्के स्वामी वृषभ- जिनेन्द्र के समवसरणकी भूमिको शुद्ध करनेके लिए ही फैल रही हों || २७२ || इस प्रकार उस समय भगवान् वृषभदेवरूपी उदयाचलसे उत्पन्न हुआ केवलज्ञानरूपी सूर्य जगत्के जीवोंके हितके लिए हुआ था । वह केवलज्ञानरूपी सूर्य तीनों लोकोंमें आनन्दको विस्तृत कर रहा था, जिनेन्द्र भगवान्के आधिपत्यको प्रसिद्ध कर रहा था और उनके तीर्थंकरोचित प्रभावको बतला रहा था ।२७३॥
इस प्रकार भगवजिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रह में भगवान्के कैवल्योत्पत्तिका वर्णन करनेवाला बीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२०॥
१. गगनात् । २. मेधरहितात् । ३. मेघरहितं करोति स्म । ४. जिनेन्द्रस्य । ५. प्रत्यायकः प० । ६. तीर्थकर नामकर्मानुभावः ।
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