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विशं पर्व गस्योरथाद्ययोर्नाम'प्रकृतीनियतोदयाः । स्त्यानगृद्धित्रिकं चास्थेद् घातेनैकन योगिराः ॥२५७॥ ततोऽष्टौ च कषायांस्तान् हन्यादध्यात्मतत्त्ववित् । पुनः कृतान्तरः शेषाः प्रकृतीरप्यनुक्रमात् ॥२५८॥ अश्वकर्णक्रियाकृष्टिकरणादिश्च यो विधिः । सोऽत्र वाग्यस्ततः सूक्ष्मसाम्परायत्वसंश्रयः ॥२५९॥ सूक्ष्मीकृतं ततो लोमं जयन्मोहं ग्यजेष्ट सः । कर्षितो सरिरुप्रोऽपि सुजयो विजिगीषुणा ॥२६०॥ तीव्र ज्वलनसौ श्रेणीरङ्गे मोहारिनिर्जयात् । ज्येष्ठो मल्ल इवावरूगन् मुनिरप्रतिमल्लकः ॥२६१॥ ततः क्षीणकषायत्वमक्षीणगुणसंग्रहः । प्राप्य तत्र रजोशेषमधुनात् स्नातको भवन् ॥२६२॥ ज्ञानदर्शन वीर्यादिविघ्ना ये केचिदुद्धताः । तानशेषान् द्वितीयेन शुक्लध्यानेन चिच्छिदे ॥२६३॥ । चतस्रः कटुकाः कर्मप्रकृतीनिवहिना। निर्दहन् मुनिरुद्भूतकैवल्योऽभूत् स विश्वदृक् ॥२६४॥ अनन्तज्ञानहग्वीर्यविरतिः शुद्धदर्शनम् । दानलामौ च भोगोपभोगावानन्त्यमाश्रिताः ॥२६५॥
अथानन्तर योगिराज भगवान् वृषभदेवने नरक ओर तिर्यश्चगतिमें नियमसे उदय आनेवाली नामकर्मकी तेरह ( १ नरकगति, २ नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, ३ तिर्यग्गति, ४ तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, ५ एकेन्द्रिय जाति,६द्वीन्द्रियजाति,७त्रीन्द्रियजाति, ८ चरिन्द्रिय जाति, ९ आतप, १० उद्योत, ११ स्थावर, १२ सूक्ष्म और १३ साधारण ) और स्त्यानगृद्धि आदि तीन (१ स्त्यानगृद्धि, २ निद्रानिद्रा और ३ प्रचलाप्रचला) इस प्रकार सोलह प्रकृतियोंको एक ही प्रहारसे नष्ट किया ॥२५७॥ तदनन्तर अध्यात्मतस्वके जाननेवाले भगवान्ने आठ कषायों (अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणसम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ) को नष्ट किया और फिर कुछ अन्तर लेकर शेष बची हुई (नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरुष वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, संज्वलन क्रोध, मान और माया ) प्रकृतियोंको भी नष्ट किया ॥२५८|| अश्वकर्ण क्रिया और कृष्टिकरण आदि जो कुछ विधि होती है वह सब भगवान्ने इसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें की और फिर वे सूक्ष्मसाम्पराय नामके दसवें गुणस्थानमें जा पहुँचे ॥२५९॥ वहाँ उन्होंने अतिशय सूक्ष्म लोभको भी जीत लिया और इस तरह समस्त मोहनीय कर्मपर विजय प्राप्त कर ली सो ठीक ही है क्योंकि बलवान् शत्रु भी दुर्वल हो जानेपर विजिगीषु पुरुष-द्वारा अनायास ही जीत लिया जाता है ।।२६०। उस समय क्षपकणीरूपी रंगभूमिमें मोहरूपी शत्रुके नष्ट हो जानेसे अतिशय देदीप्यमान होते हुए मुनिराज वृषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे किसी कुश्तीके मैदानसे प्रतिमल्ल (विरोधी मल्ल) के भाग जानेपर विजयी मल्ल सुशोमित होता है ।।२६।। तदनन्तर अविनाशी गुणोंका संग्रह करनेवाले भगवान् क्षीणकषाय नामके बारहवें गुण-स्थानमें प्राप्त हुए। वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण मोहनीय कर्मकी धूलि पड़ा दी अर्थात् उसे बिलकुल ही नष्ट कर दिया और स्वयं स्नातक अवस्थाको प्राप्त हो गये ।२६२॥ तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी जो कुछ उद्धत प्रकृतियाँ थीं उन सबको उन्होंने एकत्ववितर्क नामके दूसरे शुक्लध्यानसे नष्ट कर डाला और इस प्रकार वे मुनिराज ध्यानरूपी अग्निके द्वारा अतिशय दुःखदायी चारों घातिया कमोंको जलाकर केवलज्ञानी हो लोकालोकके देखनेवाले सर्वज्ञ हो गये ।।२६३-२६४।। इस प्रकार समस्त जगत्को प्रकाशित करते हुए और भव्य जीवरूपी
१. नरकद्विकतिर्यद्विकविकलत्रयोद्योतातपैकेन्द्रियसाधारणसूक्ष्मस्थावराः । २. प्रतिक्षिपेत् । ३. विधेः ब०, ०। ४. समाप्तवेदः, सम्पूर्णज्ञान इत्यर्थः । ५. स्नातकोऽभवत् द०, ल०, म०, इ.। ६. निद्रा, ज्ञानावरणादिपञ्चकम्, दर्शनावरणचतुष्कम्, निद्रा, प्रचला, अन्तरायपञ्चकञ्चेति षोडश । ७. धातिकर्माणीत्यर्थः । ८. चारित्राणि ।