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विश पर्व परप्रकृति संक्रान्तिः स्थिते दो रसच्युतिः । निर्जीणिश्च गुणश्रेण्या तदासीत् कर्मवैरिणाम् ॥२४०॥ अन्तः प्रकृतिसंक्षोभं मूलोद्वतं च कर्मणाम् । योगशक्त्या स योगीन्द्रो विजिगीषुरिवातनात् ॥२४॥ भूयोऽप्रमत्ततां प्राप्य भावयन् शुद्धिमुद्धराम् । आरुक्षत् भपकश्रेणी निश्रेणी मोक्षसमनः ॥२४२॥ अधःप्रवृत्तकरणमप्रमादेन भावयन् । भपूर्वकरणों भूत्वाऽनिवृत्तिकरणोऽमवत् ॥२४३॥ 'तनायं शुक्लमापूर्य ध्यानेद्ध्या नतिशुद्धिकः । मोहराजबलं कृत्स्नमपातयदसाध्वसः ॥२४४॥ "अङ्गरक्षानिवास्याप्टौ कषायान्निपिपेष"सः। वेदशक्तीस्ततस्तिस्रो नो कपायाहयान्मटान् ॥२४५॥ ततः संज्वलनक्रोधं महानायकमग्रहम् । मानमप्यस्य पाश्चात्य मायां लोभं च बादरम् ॥२४६॥ "प्रमृचैनान्" महाध्यानरङ्गे चारित्रसद्ध्वजः । निशातज्ञाननिस्त्रिंशो दयाकवचवर्मितः ॥२४॥
का विनाश होता जाता था ॥२३९।। उस समय भगवानके कर्मरूपी शत्रुओंमें परप्रकृतिरूप संक्रमण हो रहा था अर्थात् कर्माकी एक प्रकृति अन्य प्रकृति रूप बदल रही थी, उनकी स्थिति घट रही थी, रस अर्थात फल देनेकी शक्ति क्षीण हो रही थी और गुण-श्रेणी निर्जरा हो रही थी ।।२४०।। जिस प्रकार कोई विजयाभिलाषी राजा शत्रुओंकी मन्त्री आदि अन्तरङ्ग प्रकृतिमें क्षोभ पैदा करता है और फिर शत्रओंको जइसे उखाड़ देता है उसी प्रकार योगिराज भगवान वृषभदेवने भी अपने योगबलसे पहले कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंमें क्षोभ उत्पन्न किया था
और फिर उन्हें जड़सहित उखाड़ फेंकनेका उपक्रम किया था अथवा मूल प्रकृतियोंमें उद्वर्तन (उद्वेलन आदि संक्रमणविशेप) किया था॥२४१।। तदनन्तर उत्कृष्ट विशुद्धिकी भावना करते हुए भगवान अप्रमत्त अवस्थाको प्राप्त होकर मोक्षरूपी महलकी सीढ़ीके समान भपक श्रेणीपर आरूढ़ हुए ।२४२॥ प्रथम ही उन्होंने प्रमादरहित हो अप्रमत्तसंयत नामके सातवें गुणस्थानमें अधःकरणकी भावना की और फिर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण नामक नौंवें गुणस्थानमें प्राप्त हुए ॥२४३॥ वहाँ उन्होंने पृथक्त्ववितर्क नामका पहला शुक्लध्यान धारण किया और उसके प्रवाहसे विशुद्धि प्राप्त कर निर्भय हो मोहरूपी राजाकी समस्त सेनाको पछाड़ दिया ॥२४४|| प्रथम ही उन्होंने मोहरूपी राजाके अंगरक्षकके समान अप्रत्याख्यानावरण. और प्रत्याख्यानावरणसम्बन्धी आठ कषायोंको चूर्ण किया फिर नपुंसकवेद्, स्त्रीवेद और पुरुषवेद-एसे तीन प्रकारके वेदांको तथा नो कपाय नामके हास्यादि छह योद्धाओंको नष्ट किया था ।।२४५।। तदनन्तर सबसे मुख्य और सबके आगे चलनेवाले संज्वलन क्रोधको, उसके बाद मानको, मायाको और बादर लोभको भी नष्ट किया था। इस प्रकार इन कर्म-शत्रुओंको नष्ट कर महाध्यानरूपी रंगभूमिमें चारित्ररूपी ध्वज फहराते हुए ज्ञानरूपी तीक्ष्ण हथियार बाँधे हुए और दयारूपी कवचको धारण किये हुए महायोद्धा भगवान्ने अनिवृत्ति अर्थात् जिससे पीछे नहीं हटना पड़े ऐसी नवम गुणस्थान रूप
१. अप्रशस्तानां बन्धोज्झितानां प्रकृतीनां द्रव्यस्य प्रतिसमयसंख्येयगुणं सजातीयप्रकृतिषु संक्रमणम् । पक्षे शत्रुसेनासंक्रमणम् । २. अनुभागहानिः, पक्षे हर्पक्षयः । ३. निर्जरा। ४. भावकर्म, पक्षे आप्तबलम् । ५. मूलप्रकृतिमर्दनम्, पक्षे मूलबलमर्दनम्। ६. -मुत्तराम् म०। ७. अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती भूत्वा । ८. गुणस्थाने । ९. ज्ञानदीप्त्या । -ध्यानात्तशुद्धिकः द०, ५०, अ०, इ०, स०, ल०, म०, १०. मोहराजस्याङ्गरक्षकान् । ११. चूर्णीचकार । १२. पुंवेदादिशक्तीः, पक्षे प्रभुमन्त्रोत्साहशक्तोः । १३. दुर्ग्राह्यम् । -मग्रगम् द०, इ०, अ०, ५०, ल०, म० । १४. पश्चाद्भवम् । १५. चूर्णीकृत्य । प्रमृीतान ल०, म०, इ०, अ०, स०। १६. संज्वलनक्रोधादिचतुरः। १७. सज्जः । 'सन्नधौ वर्मितः सज्जो दंशितो व्यूडकण्टकः ।' इत्यभिधानात्