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आदिपुराणम् जग्राह जयभूमि तामनिवृत्तिं महामटः । मटानां सनिवृत्तीनां परकीयं न चाग्रतः ॥३४८॥ करणत्रययाथात्म्यव्यक्तयेऽर्थपदानि वै । शेयान्यमूनि सूत्रार्थसझावझरनुक्रमात् ॥२४९॥ करणाः परिणामा ये विमताः प्रथमक्षणे । ते भवेबुद्धि तो यस्मिन् क्षणेऽन्ये च पृथग्विधाः ॥२५०॥ द्वितीयक्षणसंबन्धिपरिणामकदम्बकम् । तच्चान्य तृतीये स्वादेवमाचरमक्षणात् ॥२५॥ ततश्चाधः प्रवृत्ताख्यं करणं तबिरुच्यते । अपूर्वकरणे" ते सपूर्वाः प्रतिक्षणम् ॥२५२॥ करणे त्वनिवृत्ता ख्ये न निवृत्ति रिहाजिनाम् । परिणामैमिधस्ते हि समभावाः प्रतिक्षणम् ॥२५३॥
तत्राये करणे नास्ति स्थितिघातायुपक्रमः।"हापयेत् केवलं शुद्धयन् बन्धं स्थित्यनुमागयोः ।२५४। अपूर्वकरणेऽप्येवं किं तु स्थित्यनुमागयोः । हन्यादन गुणश्रेण्यो" कुर्वन् संक्रम"निर्जरे ॥२५५॥ नृतीय करणेऽप्यवं घटमानः पटिष्टधीः । अकृत्वान्तरमुच्छिन्थात् कर्मारीन् षोडशाष्ट च ॥२५६॥
अनिवृत्ति नामकी जयभूमि प्राप्त की सो ठीक ही है क्योंकि पीछे नहीं हटनेवाले शूर-वीर योद्धाओंके आगे शत्रुकी सेना आदि नहीं ठहर सकती ।।२४६-२४८।। अब अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणोंका यथार्थ स्वरूप प्रकट करनेके लिए आगमके यथार्थ भावको जाननेवाले गणधरादि देवोंने जो ये अर्थसहित पद कहे हैं वे अनुक्रमसे जानने योग्य हैं अर्थात् उनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।।२४९।। अधःप्रवृत्तिकरणके प्रथम श्रणमें जो परिणाम होते हैं वे ही परिणाम दूसरे क्षण में होते हैं तथा इसी दूसरे क्षणमें पूर्व परिणामोंसे भिन्न और भी परिणाम होते हैं । इसी प्रकार द्वितीय क्षणसम्बन्धी परिणामोंका जो समूह है वही तृतीय क्षणमें होता है तथा उससे भिन्न जातिके और भी परिणाम होते हैं, यही क्रम चतुर्थ आदि अन्तिम समय तक होता है इसीलिए इस करणका अधःप्रवृत्तिकरण ऐसा सार्थक नाम कहा जाता है। परन्तु अपूर्वकरणमें यह बात नहीं है क्योंकि वहाँ प्रत्येक अपूर्व ही परिणाम होते रहते हैं इसलिए इस करणका भी अपूर्वकरण यह सार्थक नाम है। अनिवृत्तिकरणमें जीवोंकी निवृत्ति अर्थात् विभिन्नता नहीं होती क्योंकि इसके प्रत्येक क्षणमें रहनेवाले सभी जीव परिणामोंकी अपेक्षा परस्परमें समान ही होते हैं इसलिए इस करणका भी अनिवृत्तिकरण यह सार्थक नाम है ॥२५०-२५३॥ इन तीनों करणोंमें से प्रथम करणमें स्थिति घात आदिका उपक्रम नहीं होता, किन्तु इसमें रहनेवाला जीव शुद्ध होता हुआ केवल स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्धको कम करता रहता है ।।२५४॥ दूसरे अपूर्वकरणमें भी यही व्यवस्था है किन्तु विशेषता इतनी है कि इस करणमें रहनेवाला जीव गुण-श्रेणीके द्वारा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका संक्रमण तथा निर्जरा करता हुआ उन दोनोंके अग्रभागको नष्ट कर देता है ।।२५५।। इसी प्रकार तीसरे अनिवृत्तिकरणमें प्रवृत्ति करनेवाला कर्मरूपी अतिशय बुद्धिमान जीव भी परिणामोंकी विशुद्धि में अन्तर न डालकर सोलह और आठ शत्रुओंको उखाड़ फेंकता है ।।२५६।।
१. जयस्थानम् । २. अनिवृत्तिकरणस्थानम् । -मनिवर्ती महा अ०,५०, द०, इ०, स०।-मनिवृत्तिमहा ब० । ३. परबलम् । ४. अर्थमनुगतानि पदानि । ५. वक्ष्यमाणानि । ६. प्रथमे क्षणे प०, द०, म०, ल०। ७. द्वितीयोऽस्मिन् प०, इ०। ८. अपरमपि । ९. अवःप्रवृत्तकरणचरमसमयपर्यन्तम् । १०. निरुक्तिरूपेण निगद्यते। ११. अधःप्रवृत्तिकरणलक्षणवत् परिणामाः । १२. -वृत्त्याख्ये ल०, म०,। १३. भेदः । १४. अधःप्रवृत्तादित्रये । १५. अधःप्रवृत्तकरणे । १६. हापना हानि कुर्यात् । १७. गुणश्रेण्योः द०, इ० । १८. प्रशस्तानां बन्धोज्झितानां प्रकृतीनां द्रव्यस्य प्रतिसमयमसंख्येयगणः बन्ध्यमानसजातीयप्रवत्तिषु संक्रमणं गुणसंक्रमः । १९. अतिशयेन पटुधीः । २०. अकृत्तान्तर प० ।