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आदिपुराणम
श्रचय्य तदा कृत्स्नं विशुद्धि बलमग्रतः । निकृष्टमध्यमोत्कृष्टविभागेन श्रिवा कृतम् ॥२३३॥ कृतान्तः 'शुद्धिरुद्धृत' कृतान्तकृतविक्रियः । "उत्तस्थे सर्वसामप्रयो 'मोहारिपृतनाजये ॥२३४॥ शिरस्त्राणं तनुत्रं च तस्यासीत् संयमद्वयम् । जैत्रमस्त्रं च सद्ध्यानं मोहारातिं त्रिमित्सतः ॥ २३५॥ बलव्यसनरक्षार्थ"" ज्ञानामात्याः पुरस्कृताः । विशुद्धपरिणामश्च सैनापत्ये * नियोजितः ॥ २३६ ॥ गुणाः सैनिकता” नीता दुर्भेदा" ध्रुवयोधिनः"। तेषां हन्तव्यपक्षे च रागाद्याः प्रतिश्वचिताः ॥२३७॥ इत्यायोजितसैन्यस्य जयोद्योग जगद्गुरोः । गुणश्रेणिखलाड़ीणं" "कर्मसन्य' तु शल्कशः ॥२३८॥ यथा यथोत्तराशुद्धिरस्कन्दति तथा तथा । कर्मसम्यस्थितङ्गः संजातश्च रसक्षयः ॥२३९॥
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जिस प्रकार कोई राजा अपनी अन्तःप्रकृति अर्थात् मन्त्री आदिको शुद्ध कर उनकी जाँचकर अपनी सेना के जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे तीन भेद करता है और उनको आगे कर मरणभयसे रहित हो सब सामग्री के साथ शत्रुकी सेनाको जीतने के लिए उठ खड़ा होता है उसी प्रकार भगवान वृषभदेवने भी अपनी अन्तःप्रकृति अर्थात् मनको शुद्ध कर-संकल्प-विकल्प दूर कर अपनी विशुद्धिरूपी सेनाके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद किये और फिर उस तीनों प्रकार की विशुद्धिरूपी सेनाको आगे कर यमराज द्वारा की हुई विक्रिया ( मृत्यु(भय) को दूर करते हुए सब सामग्री के साथ मोहरूपी शत्रुकी सेना अर्थात् मोहनीय कर्मके अट्ठाईस अवान्तर भेद्रोंको जीतने के लिए तत्पर हो गये ||२३३ - २३४|| मोहरूपी शत्रुको भेदन करने की इच्छा करनेवाले भगवान्ने इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम रूप दो प्रकार के संयमको क्रमसे शिरकी रक्षा करनेवाला टोप और शरीरकी रक्षा करनेवाला कवच बनाया था तथा उत्तम ध्यानको जयशील अस्त्र बनाया था ||२३५|| विशुद्धिरूपी सेनाकी आपत्तिसे रक्षा करने के लिए उन्होंने ज्ञानरूपी मन्त्रियोंको नियुक्त किया था और विशुद्ध परिणामको सेनापति के पद पर नियुक्त किया था ||२३६ || जिनका कोई भेदन नहीं कर सकता और जो निरन्तर युद्ध करनेवाले थे ऐसे गुणोंको उन्होंने सैनिक बनाया तथा राग आदि शत्रुओंको उनके हन्तव्य पक्ष में रखा ||२३७|| इस प्रकार समस्त सेनाकी व्यवस्था कर जगद्गुरु भगवानने ज्यों ही क्रम के जीतनेका उद्योग किया त्यों ही भगवानकी गुण-श्रेणी निर्जरा के बलसे कर्मरूपी सेना खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होने लगी || २३८ || ज्यों-ज्यों भगवान्की विशुद्धि आगेआगे बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों कर्मरूपी सेनाका भंग और रस अर्थात् फल देनेकी शक्ति
१. परिणामशक्तिः । पक्षे विश्वासहेतुभूतसैन्यं च । २. प्रथमं पुराभागे च । ३. विहितान्तःकरणशुद्धिः । पक्षे कृतनान्तः शुद्धिः । ४. उद्भूता निरस्ता कृतान्तेन यमेन कृता विक्रिया विकारो येनासी । ५. उद्दीप्तो. ऽभूत् । उत्तस्थौ द० अ०, प०, ३०, स०, ल०, म० । ६. मोहनीयशत्रुसेनाविजयार्थम् । ७. शिरःकवचम् । ८. कवचम् । वर्म दंशनम् । 'उरच्छदः कङ्कालोऽजगरः कवचोऽस्त्रियाम् । इत्यभिधानात् । ९. इन्द्रियसंयमप्राणिसंयमद्वयम् । उपेक्षासंयमापहृतसंयमद्वयं वा । १०. भेत्तुमिच्छवः । ११. विशुद्धशक्ते भ्रंश परिहारार्थम् । पक्षे . सेनाभ्रंशपरिहारार्थम् । १२. सेनापतित्वे । १३. सेनाचरत्वम् । १४. दुःखेन भेद्याः । १५. नियमेन योद्धारः । १६. भटानाम् । १७. कथिताः । १८. विदारितं गलितं वा । १९ गुणसेनाभिः । २०. इव । २१. खण्डशः । 'शल्के शक्लबवले' इत्यभिधानात् । २२. गच्छति वर्द्धते । २३. शक्तिक्षयः, पक्षे हर्पक्षयः ।