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भादिपुराणम् यावान् धर्ममयः सर्गस्तं कृत्स्नं स सनातनः । युगादौ प्रश्रयामास स्वानुष्ठाननिदर्शनः ॥१९॥ स्वधोतिनोऽपि तस्यासीत् स्वाध्यायः शुद्धये धियः । सौवाध्यायिकतां प्रापन् यतोऽद्यस्वेपि संयताः । न बाह्याभ्यन्तरे चास्मिन् तपसि द्वादशात्मनि । न भविष्यति नैवास्ति स्वाध्यायेन समं तपः ॥१९॥ स्वाध्यायेऽमिरतो मिक्षुनिभृतः संवृतेन्द्रियः । भवेदेकाप्रधी(मान् विनयंन समाहितः ॥१९९॥ विविक्तेपु वनानाद्रिकुशप्रेतवनादिपु । मुहुर्बुस्मृप्टकायस्थ म्युत्सर्गाश्यमभूक्तपः ॥२०॥ देहाद् विविक्त मारमानं पश्यन् गुप्तित्रयीं श्रितः । म्युत्सर्ग स तपो भेजे स्वस्मिन् गात्रेऽपि निस्पृहः ॥२०॥ ततो व्युत्सर्गपूर्वोऽस्य ध्यानयोगोऽभवद् विमोः । मुनिय॒सृष्टकायो हि स्वामी सयानसंपदः ॥२०२॥
ध्यानाभ्यासं ततः कुर्वन् योगी सुनिवृतो मवेत्"। शेषः परिकरः सर्वो ध्यानमेवोत्तमं तपः ॥२०॥ समान पालन करते हुए इनके अधीन रहते थे ॥१९५।। इस संसारमें जो कुछ धर्म-सृष्टि थी सनातन भगवान् वृषभदेवने वह सब उदाहरणस्वरूप स्वयं धारण कर इस युगके आदिमें प्रसिद्ध की थी। भावार्थ-भगवान् धार्मिक कार्योंका स्वयं पालन करके ही दूसरोंके लिए उपदेश देते थे ॥१९६॥ यद्यपि भगवान स्वयं अनेक शास्त्रों (द्वादशाङ्ग) के जाननेवाले थे तथापि वे बद्धिकी शद्धिके लिए निरन्तर स्वाध्याय करते थे क्योंकि इन्हींका स्वाध्याय देखकर मनि लोग आज भी स्वाध्याय करते हैं । भावार्थ-यद्यपि उनके लिए स्वाध्याय करना अत्यावश्यक नहीं था क्योंकि वे स्वाध्यायके बिना भी द्वादशाङ्गके जानकार थे तथापि वे अन्य साधारण मुनियोंके हित के लिए स्वाध्यायकी प्रवृत्ति चलाना चाहते थे इसलिए स्वयं भी स्वाध्याय करते थे। उन्हें स्वाध्याय करते देखकर ही अन्य मुनियों में स्वाध्यायकी परिपाटी चली थी जो कि आजकल भी प्रचलित है ।।१९।। वाह्य और आभ्यन्तर भेदसहित बारह प्रकारके तपश्चरणमें स्वाध्यायके समान दूसरा तप न तो है और न आगे ही होगा ॥१९८।। क्योंकि विनयसहित स्वाध्यायमें तल्लीन हुआ बुद्धिमान् मुनि मनके संकल्प-विकल्प दूर हो जानेसे निश्चल हो जाता है, उसकी सब इन्द्रियाँ वशीभूत हो जाती हैं और उसको चित्त-वृत्ति किसी एक पदार्थ के चिन्तवनमें ही स्थिर हो जाती है । भावार्थ-स्वाध्याय करनेवाले मुनिको ध्यानकी प्राप्ति अनायास ही हो जाती है ॥१९९॥ वनके प्रदेश, पर्वत, लतागृह और श्मशानभूमि आदि एकान्त प्रदेशोंमें शरीरसे ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग करनेवाले भगवान के व्युत्सर्ग नामका पाँचवाँ तपश्चरण भी हुआ था IR००|| वे भगवान् आत्माको शरीरसे भिन्न देखते थे और मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीनों गुप्तियोंका पालन करते थे । इस प्रकार अपने शरीर में भी निःस्पृह रहनेवाले भगवान् व्युत्सर्ग नामक तपका अच्छी तरह पालन करते थे ॥२०१॥ तदनन्तर स्वामी वृषभदेवके व्युत्सर्गतपश्चरणपूर्वक ध्यान नामका तप भी हुआ था, सो ठीक ही है शरीरसे ममत्व छोड़ देनेवाला मुनि ही उत्तम ध्यानरूपी सम्पदाका स्वामी होता है ।२०२॥ योगिराज वृषभदेव ध्यानाभ्यासरूप तपश्चरण करते हुए ही कृतकृत्य हुए थे क्योंकि ध्यान ही उत्तम तप कहलाता है उसके सिवाय बाकी सब उसीके साधन मात्र कहलाते हैं। भावार्थ-सबसे उत्तम तप ध्यान ही है क्योंकि कोंकी साक्षात् निर्जरा ध्यानसे ही होती है । शेष ग्यारह प्रकारके तप ध्यानके सहायक कारण हैं ।२०३||
१. कृच्छ्रल०, म० । २. -निदेशनैः अ०, ३०, स० । ३. सुष्टु अधीतमनेनेति स्वधीती तस्य । ४. स्वाध्यायप्रवत्तताम् । ५. प्राप्ताः । ६. इदानीन्तनकालेऽपि । ७. द्वादशात्मके ल०,१०.म०,८०,०, प०। ८.भिन्नम् । ९. ध्यानयोजनम् । १०. तपः ल.। ११. सुनिवृत्तोऽभवत् ल०, म०, म०, स.! सुनिभूतो भवेत् इ० । सुनिभृतोऽभवत् प०,६०। १२. ध्यानादन्यदेकादशविध तपः ।