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आदिपुराणम् गर्मात् प्रभृत्यसौ देवो ज्ञानत्रितयमुबहन् । दीक्षानन्तरमेवासमनःपर्ययबोधनः ॥११॥ तथाप्युनं तपोऽतप्त सेद्धव्ये ध्रुवमाविनि ।'स ज्ञानलोचनो धीरः सहनं वार्षिकं परम् ॥१८२॥ तेनाभीष्टं मुनीन्द्राणां कायक्लेशाह्वयं तपः । तपोऽनेषु प्रधानामुत्तमाङ्गमिवाङ्गिनाम् ॥१८३॥ तत्तदातप्त योगीन्द्रः सोढाशेषपरीषहः । तपस्सुदुस्सहतरं परं निर्वाणसाधनम् ॥१८॥ कमेंन्धनानि निर्दग्धुमुयतः स तपोऽग्निना । दिदीपे नितरां धीरः प्रज्वलन्निव पावकः ॥१८५॥ असंख्यातगुणश्रेण्या धुन्वन् कर्मतमोधनम् । तपोदीप्स्यातिदीप्ताङ्गः सोऽशुमानिव दिद्युते ॥१८॥ शय्यास्य विजने देशे जागरूकस्व' योगिनः । कदाचिदासनं चासोच्छुचौ निर्जन्तुकान्तरे ॥१८७॥ न शिश्ये जागरूकोऽसौ नासीनश्चाभवद्भृशम् । प्रयतो विजहारोधी "स्यक्तभुक्तिर्जितेन्द्रियः ॥१८॥
संकल्प-विकल्प दूर होकर चित्त स्थित हो जाता है। मनका निरोध हो जाना ही उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है तथा यह ध्यान ही समस्त कर्माके क्षय हो जानेका साधन है और समस्त कर्मोका भय हो जानेसे अनन्त सुखको प्राप्ति होती है इसलिए शरीरको कृश करना चाहिए ।।१७९-१८०॥ यद्यपि वे भगवान् वृषभदेव मति, श्रुत-अवधि और मनःपर्यय इन तीन ज्ञानोंको गर्भसे ही धारण करते थे और मनापर्यय ज्ञान उन्हें दीक्षाके बाद ही प्राप्त हो गया था इसके सिवाय सिद्धत्व पद उन्हें अवश्य ही प्राप्त होनेवाला था तथापि सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले धीर-वीर भगवान्ने हजार वर्ष तक अतिशय उत्कृष्ट और उग्र तप तपा था इससे मालूम होता है कि महामुनियोंको कायक्लेश नामका तप अतिशय अभीष्ट है-उसे वे अवश्य करते हैं। जिस प्रकार प्राणियोंके शरीरमें मस्तक प्रधान होता है उसी प्रकार कायक्लेश नामका तप समस्त बाह्य तपश्चरणोंमें प्रधान होता है ॥१८१-१८३।। इसीलिए उस समय समस्त परीघहोंको सहन करनेवाले योगिराज भगवान् वृषभदेव मोक्षका उत्तम साधन और अतिशय कठिन कायक्लेश नामका तप तपते थे॥१८४॥ तपरूपी अग्निसे कर्मरूपी इन्धनको जलानेके लिए तैयार हुए वे धीर-वीर भगवान् प्रज्वलित हुई अग्निके समान अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे॥१८५।। उस समय वे असंख्यात गुणश्रेणी निर्जराके द्वारा कमरूपी गाढ़ अन्धकारको नष्ट कर रहे थे और उनका शरीर तपश्चरणको कान्तिसे अतिशय देदीप्यमान हो रहा था इसलिए वे ठीक सूर्यके समान सुशोभित हो रहे थे॥१८६॥ सदा बागृत रहनेवाले इन योगिराजको शय्या निर्जन एकान्त स्थानमें ही होती थी और जब कभी आसन भी पवित्र तथा निर्जीव स्थानमें ही होता था । सदा जागृत रहनेवाले और इन्द्रियोंको जीतनेवाले वे भगवान् न तो कभी सोते थे और न एक स्थानपर बहुत बैठते ही थे किन्तु भोगोपभोगका त्याग कर प्रयत्नपूर्वक अर्थात् ईर्यासमितिका पालन करते हुए समस्त पृथिवीमें विहार करते रहते थे। भावार्थ-भगवान् सदा जागृत रहते थे इसलिए उन्हें शय्याकी नित्य आवश्यकता नहीं पड़ती थी परन्तु जब कभी विश्रामके लिए लेटते भी थे तो किसी पवित्र और एकाम्त स्थानमें ही शय्या लगाते थे। इसी प्रकार विहारके अतिरिक्त ध्यान आदिके समय एकान्त और पवित्र स्थानमें ही आसन लगाते थे। कहनेका तात्पर्य यह है कि भगवान् विविक्तशय्यासन नामका तपश्चरण करते थे
१. स्वयं साध्ये सति । साधितुं योग्ये । सिद्धत्वे ५०, ल०, द०, म० । २. नित्ये । निमित्तसप्तमी। ३. सज्जान-ल०, म० । ४. वर्षसंबन्धि । ५. तेन कारणेन । ६. कायक्लेशम् । ७. वीरः इ० । ८. प्रतिसमयसंख्यातगुणितक्रमण कर्मणां निर्जरागुणथेणिस्तया । ९. जागरणशीलस्य । १०. अवकाशे । ११. 'व्यक्तभुक्तजितेन्द्रियः' इत्यपि क्वचित् पाठः ।