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आदिपुराणम् क्रोधकोममयस्यागा हास्यासंग विसर्जनम् । सूत्रानुगा च वाणीति द्वितीयवतभावनाः ॥१६२॥ *मिवोचिताभ्यनुज्ञातग्रहणाम्य ग्रहोऽन्यथा । संतोषो मनपाने र तृतीयव्रतभावनाः ॥१६३॥ बी कथालोकसंसर्गप्राग्रतस्मृतयोजनाः । वा वृष्य रसेनामा चतुर्थव्रतभावनाः ॥१६॥ बाह्याभ्यन्तरभेदेषु सचित्ताचित्तवस्तुपु । इन्द्रियार्थप्वना संगो नेस्संग्यवतभावनाः ॥१६॥ तिमत्ता क्षमावत्ता"ध्यानयोगकतानता। परीपहरमान तामां भावनोत्तरा ॥१६६॥ भावनासंस्कृतान्येवं व्रतान्ययमपालयत् । क्षालने "स्वागसां सर्वप्रजानामनुपालकः ॥१६॥
समातृकापदान्येवं सहोत्तरपदानि च । व्रतानि मावनीयानि मनीषिमिरतन्द्रितम् ॥६॥ यानि काम्यपि शल्यानि गहितानि जिनागमे । बुत्सृज्य तानि सर्वाणि निःशस्यो"विहरेन्मुनिः ॥१६९॥ इति स्थविरकरूपोऽयं जिनकबरेऽपि योजितः । यथागममि होच्चित्य जैन करोऽनुगम्य तान् ॥१७॥
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लोभ, भय और हास्यका परित्याग करना तथा शासके अनुसार वचन कहना ये पाँच द्वितीय सत्यव्रतकी भावनाएँ हैं ॥१६२॥ परिमित-थोडा आहार लेना, तपश्चरणके योग्य आहार लेना, श्रावकके प्रार्थना करनेपर आहार लेना, योग्यविधिके विरुद्ध आहार नहीं लेना तथा प्राप्त हुए भोजन-पानमें सन्तोष रखना ये पाँच तृतीय अचौर्यत्रतकी भावनाएँ हैं ॥१६३।। त्रियोंकी कथाका त्याग, उनके सुन्दर अंगोपांगोंके देखनेका त्याग, उनके साथ रहनेका त्याग, पहले भोगे हुए भोगोंके स्मरणका त्याग और गरिष्ठ रसका त्याग इस प्रकार ये पाँच चतुर्थ ब्रह्मचर्यप्रतकी भावनाएं हैं ॥१६॥ जिनके बाघ आभ्यन्तर इस प्रकार दो भेद हैं एसे पाँचों इन्द्रियों के विषयभूत सचित्त अचित्त पदार्थोंमें आसक्तिका त्याग करना सो पाँचवें परिग्रह त्याग प्रतकी पाँच भावनाएँ हैं ॥१६५।। धैर्य धारण करना, क्षमा रखना, ध्यान धारण करने में निरन्तर तत्पर रहना और परीपहोंके आनेपर मार्गसे च्युत नहीं होना ये चार उक्त व्रतोंकी उत्तर भावनाएँ हैं ॥१६६।। समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवाले भगवान् वृषभदेव अपने पापोंको नष्ट करनेके लिए ऊपर लिखी हुई भावनाओंसे सुसंस्कृत (शुद्ध) ऐसे व्रतोंका पालन करते थे ॥१६७। इसी प्रकार अन्य बुद्धिमान् मनुष्योंको भी आलस्य छोड़कर मातृकापढ़ अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त तथा चौरासी लाख उत्तरगुणोंसे सहित अहिंसा आदि पाँचों महावतोंका पालन करना चाहिए ॥१६८।। इसी प्रकार जैनशास्त्रोंमें जो निन्दनीय माया मिथ्यात्व और निदान ऐसी तीन शल्य कही है उन सबको छोड़कर और निःशल्य होकर ही मुनियोंको विहार करना चाहिए ॥१६९।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए व्रतोंका पालन करना स्थविर कल्प है, इसे जिनकल्पमें भी लगा लेना चाहिए। आगमानुसार स्थविर कल्प धारण कर जिनकल्प धारण करना चाहिए। भावार्थ-ऊपर कहे हुए ब्रतोंका पालन करते हुए मुनियों के साथ रहना, उपदेश देना, नवीन शिष्योंको दीक्षा देना आदि स्थविरकल्प कहलाता है और व्रतोंका पालन करते हुए अकेले रहना, हमेशा आत्मचिन्तवनमें ही लगे रहना जिनकल्प कहलाता
१. हास्यस्यासक्तस्त्यागः । -विवर्जनम् अ०, ५०, द०, ल० । २. परमागमानुता वाक् । ३. परिमित । ४. स्वयोग्य । ५. दात्रनुमतिप्रार्थित । ६. अस्वीकारः। ७. उक्तप्रकारादितरप्रकारेण । ८. स्त्रोकथालापतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणतत्संगपूर्वरतानुस्मरणयोजनाः। ९. त्याज्याः। १०. वीर्यवद्धनकरक्षीरादिरसेन सह । ११. अनासक्तिः । १२. निःपरिग्रहयत । १३. धैर्यवत्त्वम् । १४. ध्यानयोजनानन्यवृत्तिता । १५. प्रक्षालननिमित्तम् । १६. निजकर्मणाम् । १७. अष्टप्रवचनमातृकापदसहितानि । पञ्चसमितित्रिगुप्तीनां प्रवचनमातृकेति संज्ञा । १८. उत्तरगुणसहितानि । षटत्रिंशद्गुणयुक्तानीत्यर्थः । १९. आचरेत् । २०. सकलज्ञानिरहितकालः । २१. स्थविरकल्पे । २२. संगृह्य । -मिहोपेत्य ल० । २३. जिनकल्पः । जिनकल्लो-ल०,०म०। २४. अनुज्ञायताम् ।