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महापुराणम् कुमानुपस्वमाप्नोति जन्तुर्दददपात्रके । अशोधितमित्रालाबु तद्धि दानं प्रदूषयेत् ॥१४२।। आमपात्रे यथाक्षिप्तं मधु क्षीरादि नश्यति । अपात्रेऽपि तथा दत्तं तद्धि स्वं. तवं नाशयेत् ॥१४॥ पात्रं तत्पात्र वजज्ञेयं विशुद्धगुणधारणात् । यानपात्रमिवाभीष्टदेश संप्रापकं च यत् ॥१४॥ न हि लोहमयं यानपात्रमुत्तारयेत् परम् । तथा कर्ममराक्रान्तो दोषवान्नैव तारकः ॥१४५॥ ततः परमनिर्वाणसाधनं रूपमुहहन् । कायस्थित्यर्थमाहारमिच्छन् ज्ञानादिसिद्धये ॥१४६।। न वाम्छन् बलमायुर्वा स्वाद वा देहपोषणम् । केवलं प्राणप्रत्यर्थ संतुष्टो पासमात्रया ॥१४॥ पात्रं भवेद् गुणरेभिर्मनिः स्वपरतारकः । तस्मै दत्तं पुना त्यामपुनर्जन्मकारवाम् ॥१४॥
तदुदाहरणं पुष्ट मिदमेव महोदयम् । महत्त्वे दानपुण्यस्य पन्था 'श्चर्यमिहापि यत् ।।१४९॥ "ततो भरत राजर्षे दानं देयमनुत्तरम् । प्रसरिष्यन्ति" पात्राणि मगवतीर्थसंनिधौ ॥१५॥
तेभ्यः श्रेयान् यथाचल्यो स्व"मर्नुभवविस्तरम् । ततः सदस्या "स्ते सर्वे समानरुपयोऽभवन ॥१५॥ से रहित मिथ्यादृष्टि है वह पात्र नहीं माना गया है अर्थात् अपात्र है ॥१४१॥ जो मनुष्य अपात्रके लिए दान देता है वह कुमनुष्य योनि (कुभोगभूमि) में उत्पन्न होता है क्योंकि जिस प्रकार बिना शुद्धि की हुई तूंबी अपनेमें रखे हुए दूध आदिको दूषित कर देती है उसी प्रकार अपात्र अपने लिए दिये हुए दानको दूषित कर देता है ॥१४२॥ जिस प्रकार कच्चे बरतनमें रखा हुआ ईखका रस अथवा दूध स्वयं नष्ट हो जाता है और उस बरतनको भी नष्ट कर देता है उसी प्रकार अपात्रके लिए दिया हुआ दान स्वयं नष्ट हो जाता है-व्यर्थ जाता है और लेनेवाले पात्रको भी नष्ट कर देता है-अहंकारादिसे युक्त बनाकर विषय-वासनाओंमें फँसा देता है ॥१४३॥ जो अनेक विशुद्ध गुणोंको धारण करनेसे पात्रके समान हो वही पात्र कहलाता है। इसी प्रकार जो जहाजके समान इष्ट स्थानमें पहुँचानेवाला हो वही पात्र कहलाता है ॥१४४॥ जिस प्रकार लोहेकी बनी हुई नाव समुद्रसे दूसरेको पार नहीं कर सकतो (और न स्वयं ही पार हो सकती है) इसी प्रकार कर्मोंके भारसे दबा हुआ दोषवान् पात्र किसीको संसार-समुद्रसे पार नहीं कर सकता (और न स्वयं ही पार हो सकता है) ॥१४५॥ इसलिए, जो मोक्षके साधनस्वरूप दिगम्बर वेषको धारण करते हैं, जो शरीरको स्थिति और ज्ञानादि गुणोंकी सिद्धिके लिए आहारकी इच्छा करते हैं, जो बल, आयु, स्वाद अथवा शरीरको पुष्ट करनेकी इच्छा नहीं करते, जो केवल प्राणधारण करनेके लिए थोड़े-से प्रासोंसे हो सन्तुष्ट हो जाते हैं, और जो निज तथा परको तारनेवाले हैं ऐसे ऊपर लिखेहए गणोंसे सहित मनिराज ही पात्र हो सकते हैं उनके लिए दिया हुआ आहार अपुनर्भव अर्थात् मोक्षका कारण है ॥१४६-१४८॥ दानरूपी पुण्यके माहात्म्यको प्रकट करनेके लिए, सबसे बड़ा और पुष्ट उदाहरण यही है कि मैंने दानके माहात्म्यसे हो पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये हैं ।। १४९ ।। इसलिए हे राजर्षि भरत, हम सबको उत्तम दान देना चाहिए । अब भगवान् वृषभदेवके तीर्थके समय सब जगह पात्र फैल जायेंगे। भावार्थ-भगवान्के सदुपदेशसे अनेक मनुष्य मुनिव्रत धारण करेंगे, उन सभीके लिए हमें आहार आदि दान देना चाहिए ॥१५०॥ राजकुमार श्रेयान्सने उन सब सदस्योंके लिए अपने स्वामी भगवान् वृषभदेवके पूर्वभव विस्तारके साथ कहे जिससे उन सबके उत्तम दान देने में रुचि उत्पन्न
१. कुभोगभूमिमनुष्यत्वम् । २. दुष्टो भवति । ३. सपदि । ४. दत्तद्रव्यम् । ५. पात्रमपि । ६. भाजनवत् । ७.-देशस-ब०, ५०।८. रुचिम् । ९. पवित्रयति । १०. ननूदाहरणं अ०,५०,८०,ल०।११. परि. पूर्णम् । १२. पञ्चाश्चर्य मयापि यत् अ०, प०, ल०, ८०। १३. ततः कारणात् । १४. भो भरतराज । १५. प्रसूतानि भविष्यन्ति। १६.-यानथाचख्यो ल०। १७. स्वश्च भर्ता च स्वभारी तयोर्भवविस्तरस्तम् । १८. सभ्याः ।