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विंशं पर्व
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इति प्रह्लादिनीं वाचं तस्य पुण्यानुबन्धिनीम् । शुश्रुवान् भरताधीशः परां प्रीतिमवाप सः ॥ १५२ ॥ प्रीतः संपूज्य तं भूयः परं सौहार्द मुद्वहन् । गुरोर्गुणाननुध्यायन् प्रत्यगात् स स्वमालयम् ॥१५३॥ भगवानथ संजात बलवीर्यो महाधृतिः । भेजे परं तपोयोगं योगविज्जैन कल्पितम् ॥ १५४ ॥ मोहान्धतमसध्वंसकल्पा' सन्मार्गदर्शिनी । दिदीपेऽस्य मनोऽगारे समिद्धा बोधदीपिका ॥ १५५ ॥ गुणान् गुणास्थय पश्येद्दोषान् दोषधियापि यः । हेयोपादेयवित् स स्यात् क्वाज्ञस्य गतिरीडशी ॥१५६॥ ततस्तस्वपरिज्ञानात् गुणागुणविभागवित् । गुणेष्वासजति स्मासौ हित्वा दोषानशेषतः ॥ १५७ ॥ सावद्यविरतिं कृत्स्नामूरी कृत्य प्रबुद्धधीः । तद्भेदान् पालयामास व्रतसंज्ञाविशेषितान् ॥ १५८ ॥ दयाङ्गनापरिष्वङ्गः” सत्ये नित्यानुरक्तता । अस्तेयत्रततात्पर्य ब्रह्मचर्यैकतानता ॥ १५९॥ परिग्रहेष्वना "संगो विकाला शनवर्जनम् । व्रतान्यमूनि तस्सिदृध्ये " भावयामास भावनाः ॥ १६०॥ मनोगुप्तिर्व चोगुतिरीर्या" कायनियन्त्रणे । विष्वाणसमितिश्चेति प्रथमव्रतभावनाः ॥ १६१ ॥
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हुई थी || १५१ || इस प्रकार आनन्द उत्पन्न करनेवाले और पुण्य बढ़ानेवाले श्रेयान्सके वचन सुनकर भरत महाराज परमप्रीतिको प्राप्त हुए || १५२ || अतिशय प्रसन्न हुए महाराज भरतने राजा सोमप्रभ और श्रेयाम्सकुमारका खूब सम्मान किया, उनपर बड़ा स्नेह प्रकट किया और फिर गुरुदेव - वृषभनाथके गुणोंका चिन्तवन करते हुए अपने घरके लिए वापिस गये ॥ १५३ ॥ अथानन्तर आहार ग्रहण करनेसे जिनके बल और बीर्यकी उत्पत्ति हुई है जो महा धीरवीर और योगविद्या जाननेवाले हैं ऐसे भगवान वृषभदेव जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए उत्कृष्ट तपोयोगको धारण करने लगे || १५४ || इनके मनरूपी मन्दिरमें मोहरूपी सघन अन्धकारको नष्ट करनेवाला, समीचीन मार्ग दिखलानेवाला और अतिशय देदीप्यमान ज्ञानरूपी दीपक प्रकाशमान हो रहा था ।। १५५॥ जो पुरुष गुणोंको गुण-बुद्धि से और दोषों को दोष-बुद्धिसे देखता है अर्थात् गुणोंको गुण और दोषोंको दोष समझता है वही हेय (छोड़ने योग्य) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) वस्तुओंका जानकार हो सकता है। अज्ञानी पुरुषकी ऐसी अवस्था कहाँ हो सकती है ? ।। १५६ ।। वे भगवान् तत्वोंका ठीक-ठीक परिज्ञान होनेसे गुण और दोषोंके विभागको अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे दोषोंको पूर्ण रूपसे छोड़कर केवल गुणों में ही आसक्त रहते थे ॥ १५७॥
अतिशय बुद्धिमान् भगवान् वृषभदेवने पापरूपी योगोंसे पूर्ण विरक्ति धारण की थी तथा उसके भेद जो कि व्रत कहलाते हैं उनका भी बे पालन करते थे || १५८|| दयारूपी स्त्रीका आलिंगन करना, सत्यव्रतमें सदा अनुरक्त रहना, अचौर्यव्रतमें तत्पर रहना, ब्रह्मचर्यको ही अपना सर्वस्व समझना, परिग्रहमें आसक्त नहीं होना और असमयमें भोजनका परित्याग करना; भगवान् इन व्रतोंको धारण करते थे और उनकी सिद्धिके लिए निरन्तर नीचे लिखी हुई भावनाओंका चिन्तवन करते थे ।। १५९ - १६० ॥ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईर्यासमिति, कायनियन्त्रण अर्थात् देखभाल कर किसी वस्तुका रखना- उठाना और विष्वाणसमिति अर्थात् आलोकित पानभोजन ये पाँच प्रथम अहिंसा, व्रतकी भावनाएँ हैं ||१६|| क्रोध
१. भूपः ल० । २. सुहृदयत्वम् । ३. आहारजनिता शक्तिः । ४. जिनानां संबन्धि कल्पः जिनकल्पस्तत्र भवम् । ५. सन्नद्धा । 'कल्पा सज्जा निरामया' इत्यभिधानात् । ६. गुणबुद्ध्या । ७. आसक्तो भवति स्म । ८. निवृत्तिम् । ९. अंगीकृत्य । १०. सावद्यविरतिभेदान् । ११. आलिङ्गनम् । १२. अनम्यवृत्तिता । 'एकतानोऽनन्यवृत्तिरेका ग्रे कायनावपि' इत्यभिधानात् । १३. अनासक्तिः । १४. रात्रिभोजनम् । १५. व्रतसिद्यर्थम् । १६. ईर्यासमितिः काय गुप्तिरित्यर्थः । १७. एषणासमितिः |