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विशं पर्ष परिणामः प्रधानाङ्गं यतः पुण्यस्य साधने । मतं 'ततोऽनुमन्तणामा दिष्टस्तत्फलोदयः ॥१०९॥ कृत्वा तनुस्थिति धीमान् योगीन्द्रो जातु कौतुकौ । प्रणतावभिनन्येतो भ्रातरौ प्रस्थिती वनम् ॥१०॥ भगवन्तमनुव्रज्य व्रजन्तं किंचिदन्तरम् । स श्रेयान् कुरुशार्दूलौ न्यवृतनिभृतं पुनः ॥११॥ नियंपेक्षं व्रजन्तं तं भगवन्तं वनान्तरम् । परावर्त्य मुखं किंचिद् वीक्षमाणावनुक्षणम् ॥११२॥ तदुन्मुखी दृशं चेतोवृत्तिं च तमनस्थिताम् । यावदृग्गोचरस्तावनिवर्तयितुमक्षमौ ॥११३॥ संकथां तद्गतामेव प्रस्तुवानो मुहुर्मुहुः । स्तुवानौ तद्गुणान् भूयो मन्वानौ स्वां कृतार्थताम् ॥११॥ भगवत्पादसंस्पर्शपूतो क्षमा बक्तलक्षणः। तत्पदैरङ्गिता प्रीत्या"निध्यायन्तौ कृतानती ॥११५॥ सुभ्राता कुरुनाथोऽयं कृतार्थः सुकृती कृती"। यस्यायमीडशो भ्राता जातो जातमहोदयः ॥११६॥ श्रेयानयं बहुश्रेयान् प्रज्ञा यस्यमीरशी । पौरैरित्युन्मुखैरारात् कीर्त्यमानगुणोस्करौ ॥११७॥ शूर्पोन्मेयानि रत्नानि महावीथीवितस्ततः । संचिन्वानान् यथाकाममानन्दन्ती"पृथग्जनान्। ११८॥ "उच्चावचसुरोन्मुक्तरत्नप्रावततान्तरम् ।'कान्वा नृपाङ्गणं कृच्छाजनैराशासितौ"मुहुः ॥१९॥
शुभ अशुभ परिणामोंका कारण कहा है । जब कि पुण्यके साधन करनेमें जीवोंके शुभ परिणाम ही प्रधान कारण माने जाते हैं तब शुभ कार्यकी अनुमोदना करनेवाले जीवोंको भी उस शुभ फलकी प्राप्ति अवश्य होती है ॥१०८-१०९।। इस प्रकार महाबुद्धिमान योगिराज भगवान् वृषभदेव शरीरकी स्थितिके अर्थ आहार ग्रहण कर और जिन्हें एक प्रकारका कौतुक उत्पन्न हुआ है तथा जो अतिशय नम्रीभूत हैं ऐसे उन दोनों भाइयोंको हर्षित कर पुनः वनकी ओर प्रस्थान कर गये ॥११॥ कुरुवंशियोंमें सिंहके समान पराक्रमी वह राजा सोमप्रभ और श्रेयान्स कुछ दूर तक वनको जाते हुए भगवानके.पीछे-पीछे गये और फिर रुक-रुककर वापिस लौट आये ॥१११।। वे दोनों ही भाई अपना मुख फिराकर निरपेक्ष रूपसे वनको जाते हुए भगवानको क्षण-क्षणमें देखते जाते थे ॥११२।। जबतक वे भगवान् आँखोंसे दिखाई देते रहे तबतक वे दोनों भाई भगवान्की ओर लगी हुई अपनी दृष्टिको और उन्हींके पीछे गयीं हुई
नी चित्तवृत्तिको लौटानेके लिए समर्थ नहीं हो सके थे ॥११३।। जो बार-बार भगवान्की ही कथा कह रहे थे, बार-बार उन्हींके गुणोंकी स्तुति कर रहे थे, अपने-आपको कृतकृत्य मान रहे थे, जो भगवान्के चरणोंके स्पर्शसे पवित्र हुई तथा अनेक लक्षणोंसे सुशोभित और उन्हींके चरणोंसे चिह्नित भूमिको नमस्कार करते हुए बड़े प्रेमसे देख रहे थे। जिसके यह ऐसा महान पुण्य उपार्जन करनेवाला भाई हुआ है ऐसा यह कुरुवंशियोंका स्वामी राजा सोमप्रभ ही उत्तम भाईसे सहित है, कृतकृत्य है, पुण्यात्मा है और कुशल है तथा जिसकी ऐसी उत्तम बुद्धि है ऐसा यह श्रेयान्सकुमार अनेक कल्याणोंसे सहित है इस प्रकार सामने जाकर पुरबासीजन जिनके गुणोंके समूहका वर्णन कर रहे थे। बड़ी-बड़ी गलियोंमें जहाँ-तहाँ बिखरे हुए सूर्यके समान तेजस्वी रत्नोंको इकट्ठे करनेवाले साधारण जनसमूहको जो आनन्दित कर रहे थे। देवोंके द्वारा वर्षाये हुए रत्नरूपी पाषाणोंसे जिसका मध्यभाग ऊँचा-नीचा
१. कारणात् । २. अनुमति कृतवताम् । ३. तत्ज्ञानफलम् । ४. संतोपं नीत्वा। -नन्द्यनी १०.द०। ५. गतौ। ६. अनुगम्य । ७. कुरुवंशश्रेष्ठः। सोमप्रभ इत्यर्थः । ८. किंचिदीक्षमाणा - ल०। ९. प्रकृतं कुर्वाणी । १०. स्वकृतार्थताम् ल., म. । ११. विलोकयन्ती। विध्यायन्ती ल०, अ०। १२. शोभनो भ्राता यस्य । १३. पुण्यवान् । १४. कुशलः । १५. प्रस्फोटनप्रमेयानि । 'प्रस्फोटनं शर्पमस्त्री' इत्यभिधानात। १६. साधारणजनान । १७. नानाप्रकार । १८. विस्तृतावकाशम् । १९. अतिक्रम्य । २०. प्रशमितावित्यर्थः ।