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विशं पर्व
प्रपूर्यन्ते स्म षण्मासास्तस्यायो योगधारिणः । गुरोमेरोरिवाचिन्त्यमाहात्म्यस्याचलस्थितेः ॥१॥ ततोऽस्य मतिरित्यासीद् 'यतिच_प्रबोधने । कायास्थित्यर्थनिर्दोषविष्वाणान्वेषणं प्रति ॥२॥ भहो भग्ना महावंशा बतामी नवसंयताः । सन्मार्गस्यापरिज्ञानात् सयोऽभीमिः परीषहैः ॥३॥ मार्गप्रबोधनाथं च मुक्तेश्च सुखसिद्धये । कायस्थित्यर्थमाहारं दर्शयामस्ततोऽधुना ॥४॥ न केवलमयं कायः कर्शनीयो मुमुक्षुमिः । नाप्युल्कटरसैः पोष्यो मृष्टरिष्टश्च वल्मनः ॥५॥ वशे यथा स्युरक्षाणि नोत धावन्त्यनूत्पथम् । तथा प्रयतितम्यं स्याद् वृत्तिमाश्रित्य मध्यमाम् ॥६॥ दोषनिहरणायेष्टा उपवासायुपक्रमाः । प्राणसन्धारणायायमाहारः सूत्रदर्शितः ॥७॥ कायक्लेशो मतस्तावन्न संक्लेशोऽस्ति यावता । संक्लेशे यसमाधानं मार्गात् प्रच्युतिरेव च ॥४॥ सिद्ध्यै संयमयात्राया "स्तत्तनुस्थितिमिच्छमिः । प्रायो निर्दोष आहारो रसासंगाद् विनर्षिभिः॥९॥ मगवानिति निश्चिन्छन् योगं संहृत्य धारधीः । प्रचचाल महीं कृत्स्नां चालयन्निव विक्रमः ॥१०॥
अथानन्तर-जिनका माहात्म्य अचिन्त्य है और जो मेरु पर्वतके समान अचल स्थितिको धारण करनेवाले हैं ऐसे जगद्गुरु मगवान् वृषभदेवको योग धारण किये हुए जब छह माह पूर्ण हो गये ॥१॥ तब यतियोंकी चर्या अर्थात् आहार लेनेकी विधि बतलाने के उद्देश्यसे शरीरकी स्थितिके अर्थ निर्दोष आहार हूँढने के लिए उनकी इस प्रकार बुद्धि उत्पन्न हुई-वे ऐसा विचार करने लगे ॥२॥ कि बड़े दुःखकी बात है कि बड़े-बड़े वंशोंमें उत्पन्न हुए ये नवदीक्षित साधु समीचीन मार्गका परिज्ञान न होनेके कारण इन क्षुधा आदि परीषहोंसे शीघ्र ही भ्रष्ट हो गये ।।३।। इसलिए अब मोक्षका मार्ग बतलानेके लिए और सुखपूर्वक मोक्षकी सिद्धिके लिए शरीरकी स्थिति अर्थ आहार लेनेकी विधि दिखलाता हूँ ॥४॥ मोक्षाभिलाषी मुनियोंको यह शरीर न तो केवल कृश ही करना चाहिए और न रसीले तथा मधुर मनचाहे भोजनोंसे इसे पुष्ट ही करना चाहिए ।।५।। किन्तु जिस प्रकार ये इन्द्रियाँ अपने वशमें रहें और कुमार्गकी ओर न दो उस प्रकार मध्यम वृत्तिका आश्रय लेकर प्रयत्न करना चाहिए ॥६॥ वात, पित्त और कफ आदि दोष दूर करनेके लिए उपवास आदि करना चाहिए तथा प्राण धारण करनेके लिए आहार ग्रहण करना भी जैन-शास्त्रोंमें दिखलाया गया है। कायक्लेश उतना ही करना चाहिए जितनेसे संक्लेश महो। क्योंकि संक्लेश हो जानेपर चित्त चंचल हो जाता है और मार्गसे भीच्यत होना पड़ता है। इसलिए संयमरूपी यात्राकी सिद्धिके लिए शरी स्थिति चाहनेवाले मुनियोंको रसोंमें आसक्त न होकर निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए ।।९।। इस प्रकार निश्चय करनेवाले धीर-वीर भगवान् वृषभदेव योग समाप्त कर अपने चरणनिक्षेपों ( डगों) के द्वारा मानो समस्त पृथ्वीको कम्पायमान करते हुए विहार करने लगे॥१०॥
१. यत्याचार । २. भोजनगवेषणम् । ३. कृशीकरणीयः । ४. मुखप्रियः । ५. आहारैः। ६. उत अथवा । नो विधावन्त्यनूत्पथम् ल, म०। ७. गच्छन्ति । ८. उन्मार्ग प्रति । ९. परमागमे प्रतिपादितः । १०. प्रापणायाः। ११. तत् कारणात् । १२. स्वादासक्तिमन्तरेण । १३. परिहृत्य । १४. पदन्यासः।