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विंशं पर्व
मैत्रीप्रमोदकारुण्य माध्यस्थान्यनुभावयन् ।' सस्वसृष्टिगुणोत्कृष्ट क्लिष्टानिष्टानुशिष्टिषु ॥ ६५॥ युगप्रमितमध्वानं पश्यन्नातिविलम्बितम् । नातिद्रुतं च विन्यस्यन् पदं गन्धेभलीलया ॥ ६६ ॥ तथाप्यस्मिञ्जनाकीर्णे शून्यारण्यकृतास्थय । "निव्यंप्रो भगवांश्चान्द्री चर्यामाश्रित्य पयटन् ॥६७॥ गेहं गेहं यथायोग्यं प्रविशन् राजमन्दिरम् । प्रवेष्टुकामो ह्यगमत् सोऽयं धर्मः सनातनः ॥ ६८ ॥ ततः सिद्धार्थ नामैत्य द्रुतं दौवारपालकः । भगवत्संनिधिं राज्ञे सानुजाय न्यवेदयत् ॥ ६९ ॥ अथ सोमप्रभो राजा श्रेयानपि युवा नृपः । सान्तःपुरौ ससेनान्यौ सामास्यावुदतिष्ठताम् ॥७०॥ प्रत्युद्गम्य ततो भक्या यावद्राजाङ्गणाद बहिः । दूरादवनती भर्तुश्चरणौ तौ प्रणेमतुः ॥७१॥ सायं पाद्यं" " " निवेद्याद्धयोः परीष्य च जगद्गुरुम् । तौ परं जग्मतुस्तोषं निधावित्र गृहागते ॥७२॥
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तौ देवदर्शनात् प्रीतौ गात्रे' पुलकमूहतुः । मलयानिलसंस्पर्शाद् भूरुहावङ्कुरं यथा ॥७३॥ भगवन्मुखसंप्रेक्षा विकसन्मुखपङ्कजौ । विबुद्धकमलौ प्रातस्तनौ" पद्माकराविव ॥७४॥ प्रमोदनिर्भरौ मक्तिमरानमितमस्तकौ । प्रश्रयप्रशमौ मूर्ताविव तौ रेजतुस्तदा ॥ ७५ ॥
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मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाका विचार करते हुए चार हाथ प्रमाण मार्ग देखकर न बहुत धीरे और न बहुत शीघ्र मदोन्मत्त हाथी जैसी लोलापूर्वक पैर रखते हुए, और मनुष्यों से भरे हुए नगर को शून्य वनके समान जानते हुए निराकुल होकर चान्द्रीचर्याका आश्रय लेकर विहार कर रहे थे अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा धनवान और निर्धन-सभी लोगोंके घरपर अपनी चाँदनी फैलाता है उसी प्रकार भगवान् भी राग-द्वेषसे रहित होकर निर्धन और धनवान् सभी लोगों के घर आहार लेनेके लिए जाते थे। इस प्रकार प्रत्येक घर में यथायोग्य प्रवेश करते हुए भगवान् राजमन्दिर में प्रवेश करनेके लिए उसके सम्मुख गये सो आचार्य कहते हैं कि रागद्वेषरहित हो समतावृत्ति धारण करना ही सनातन- सर्वश्रेष्ठ प्राचीन धर्म है ||६४-६८ ॥
तदनन्तर सिद्धार्थ नामके द्वारपालने शीघ्र ही जाकर अपने छोटे भाई श्रेयान्सकुमार के साथ बैठे हुए राजा सोमप्रभके लिए भगवान् के समीप आनेके समाचार कहे ||६९|| सुनते ही राजा सोमप्रभ और तरुण राजकुमार श्रेयान्स, दोनों ही, अन्तःपुर, सेनापति और मन्त्रियोंके साथ शीघ्र ही उठे ||७०|| उठकर वे दोनों भाई राजमहलके आँगन तक बाहर आये और दोनोंने ही दूरसे नम्रीभूत होकर भक्तिपूर्वक भगवान के चरणोंको नमस्कार किया ||११|| उन्होंने भगवान्के चरणकमलोंमें अर्धसहित जल समर्पित किया, अर्थात् जलसे पैर धोकर अर्ध चढ़ाया, जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवकी प्रदक्षिणा दी और यह सब कर वे दोनों ही इतने सन्तुष्ट हुए मानो उनके घर निधि हो आयी हो || ७२ || जिस प्रकार मलयानिलके स्पर्शसे वृक्ष अपने शरीरपर अकुर धारण करने लगते हैं उसी प्रकार भगवान् के दर्शनसे हर्षित हुए वे दोनों भाई अपने शरीरपर सेमांच धारण कर रहे थे ||१३|| भगवान्का मुख देखकर जिनके मुखकमल विकसित हो उठे हैं ऐसे वे दोनों भाई ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनमें कमल फूल रहे हों ऐसे प्रातःकाल के दो सरोवर ही हों ॥ ७४ ॥ | उस समय वे दोनों हर्षसे भरे हुए थे और भक्तिके भारसे दोनोंके मस्तक नीचेकी ओर झुक रहे थे इसलिए ऐसे सुशोभित होते थे मानो
१. सत्त्ववर्गः | २. क्लेशित । ३. अशिक्षितेषु । ४. विहितबुद्ध्या । ५. निराकुल: । ६. चन्द्रसंग - न्धिनीम् । चन्द्रवन्मन्दामित्यर्थः । ७. गतिम् । ८. उतिष्ठतः स्म । ९. संमुखं गत्वा । १०. रत्नादिपदार्थम् । ११. पादाय वारि । 'पाद्यं पादाय वारिणी' इत्यभिधानात् । १२. समर्प्य । १३. रोमाञ्चम् । १४. प्रातः काले संजाती ।