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विशं पर्व विभो भोजनमानीतं प्रसीदोपविशासने । समं मज्जनसामग्रथा निर्विश स्नानभोजने ॥२१॥ एषोऽअलिः कृतोऽस्माभिः प्रसीदानुगृहाण नः । इत्यकेऽध्यषिषन् मुग्धा विभुमज्ञाततरक्रमाः ॥२२॥ केचित् पादानुपादाय तत्पांशुस्पर्शपावनैः । प्रणतैर्मस्तकै थमनाथिषत भुक्तये ॥२३॥ इदं खाद्यमिदं स्वाद्यमिदं मोज्यं पृथग्विधम् । मुहुर्मुहुरिदं पेयं हृद्यमाप्यायनं तनोः ॥२४॥ तैरित्यद्ध्येष्यमाणोऽपि सम्भ्रान्तैरनमिज्ञकैः । न कल्प्यमिति मन्वानास्तूष्णीमेवापससिवान् ॥२५॥ विमोर्निगूढचर्यस्य मतं ज्ञातुमनीश्वराः"। केचित् कर्तव्यतामूढाः स्थिताश्चित्रेष्विवार्पिताः ॥२६॥ सपुत्रदारैरन्यैश्च पदालग्नरुदश्रुभिः । क्षणविघ्निततच्चों भूयोऽपि विजहार सः ॥२७॥ इत्यस्य परमां चर्या चरतोऽज्ञातचर्यया। जगदाश्चर्यकारिण्या मासाः षडपरे ययुः ॥२८॥ ततः संवत्सरे पूर्णे पुरं हास्तिनसाहवयम् । कुरुजाङ्गलदेशस्य ललाम वाससाद सः ॥२९॥ तस्य पाता"तदासीच्च कुरुवंशशिखामणिः । सोमप्रमः प्रसन्नारमा सोमसौम्याननो नृपः ॥३०॥
तस्यानुजः कुमारोऽभूच्छेयान् श्रेयान्गुणोदयैः । रूपेण मन्मथः कान्त्या शशी दीप्त्या" स मानुमान् ॥३१॥ की सामग्रीके साथ-साथ भोजन लाया हूँ, प्रसन्न होइए, इस आसनपर बैठिए और स्नान तथा भोजन कीजिए ।२०-२१॥ चर्याकी विधिको नहीं जाननेवाले कितने ही मूर्ख लोग भगवान्से ऐसी प्रार्थना करते थे कि हे भगवन् , हम लोग दोनों हाथ जोड़ते हैं, प्रसन्न होइए और हमें अनुगृहीत कीजिए ॥२२॥ कितने ही लोग भगवान्के चरण-कमलोंको पाकर और उनकी धूलिके स्पर्शसे पवित्र हुए अपने मस्तक झुकाकर भोजन करने के लिए उनसे बार-बार प्रार्थना करते थे ॥२३॥ और कहते थे कि हे भगवन्, यह खाद्य पदार्थ है, यह स्वाद्य पदार्थ है, यह जुदा रखा हुआ भोज्य पदार्थ है, और यह शरीरको सन्तुष्ट करनेवाला, अतिशय मनोहर बारबार पीने योग्य पेय पदार्थ है इस प्रकार संभ्रान्त हुए कितने ही अज्ञानी लोग भगवानसे बारवार प्रार्थना करते थे परन्तु 'ऐसा करना उचित नहीं है' यही मानते हुए भगवान् चुपचाप वहाँसे आगे चले जाते थे॥२४-२५।। जिनकी चर्याकी विधि अतिशय गुप्त है ऐसे भगवान्के अभिप्रायको जाननेके लिए असमर्थ हुए कितने ही लोग क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए इस विषयमें मूढ होकर चित्रलिखितके समान निश्चल ही खड़े रह जाते थे ।।२६।। अन्य कितने ही लोग आँखोंसे आँसू डालते हुए अपने पुत्र तथा त्रियोंसहित भगवान्के चरणों में आ लगते थे जिससे क्षण-भरके लिए भगवानकी चर्या में विघ्न पड़ जाता था परन्तु विघ्न दूर होते ही वे फिर भी आगेके लिए विहार कर जाते थे ॥२७। इस प्रकार जगत्को आश्चर्य करनेवाली गूढ चर्यासे उत्कृष्ट चर्या धारण करनेवाले भगवान्के छह महीने और भी व्यतीत हो गये ॥२८॥ इस तरह एक वर्ष पूर्ण होनेपर भगवान् वृषभदेव कुरुजांगल देशके आभूषणके समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे ॥२९॥ उस समय उस नगरके रक्षक राजा सोमप्रभ थे। राजा सोमप्रभ कुरुवंशके शिखामणिके समान थे, उनका अन्तःकरण अतिशय प्रसन्न था और मुख चन्द्रमाके समान सौम्य था.॥३०॥ उनका एक छोटा भाई था जिसका नाम श्रेयान्सकुमार था। वह श्रेयान्सकुमार गुणोंकी वृद्धिसे श्रेष्ठ था, रूपसे कामदेवके समान था, कान्तिसे चन्द्रमा
१. सत्कारपूर्वकं प्रार्थितवन्तः । 'इष इच्छायाम् ण्यन्तात् लुङ्'। २. प्रार्थयामासुः। अनाधिषत इत्यपि क्वचित् । ३. भोक्तुं योग्यम् । ४. पातु योग्यम् । ५. सन्तृप्तिकारकम् । ६. प्रार्थ्य मानः । ७. इतस्ततः परिभ्रमभिः । ८.न कृत्यम् । ९. अपसरति स्म। गतवानित्यर्थः । १०. अभिप्रायम। ११. असमर्थाः । १२. पादालग्न-ल०, म०, अ०। पादलग्न-40, द०। १३. सा चासो चर्या च तच्चर्या क्षणं विनिता तच्चर्या यस्य । १४. हास्तिनमित्याह्वयेन सहितम् । १५. 'ललाम च ललामं च भूषाबालक्विाजिषु ।' तिलकमित्यर्थः । १६. पालकः । १७. तत्काले। १८. प्रसन्नबुद्धिः। १९. तेजसा।