________________
४४८
आदिपुराणम् धनदेवचरो योऽसावहमिन्द्रो दिवइच्युतः । स यानित्यभूम्छ यः प्रजानां श्रेयसां निधिः ॥३२॥ सोऽदर्शद् भगवत्यस्यां पुरि संनिभिमष्यति । शर्वर्याः पश्चिम या स्वप्नानेतान् शुमावहान् ॥३३॥ सुमेरुमैक्षतोत्तुङ्गं हिरण्मयमहातनुम् । कल्पद्रुमं च शाखाप्रकम्बि भूषणभूषितम् ॥३४॥ सिंह संहार संध्याम कसरोख रकन्धरम् । अङ्गाप्रकग्नमृत्स्नं च वृषभं कूलमुद्रुजम् ॥३५॥ सूर्येन्दू भुवनस्येव नयने प्रस्फुरदयुती । सरस्वन्तमपि प्रोग्चै:धि रत्नाचिताणसम् ॥३६॥ अष्टमङ्गलधारीणि भूतरूपाणि चामतः । सोऽपश्यद् भगवत्पाददर्शनैकफलानिमान् ॥३७॥ सप्रश्रयमथासाथ प्रमाते प्रीतमानसः । सोमप्रभाव तान् स्वप्नान् यथारष्टं न्यवेदयत् ॥३०॥ ततः पुरोधाः"कल्याणं फलं तेषामभाषत । प्रसरहमानज्योत्स्नाप्रधौतककुबन्तरः॥३९॥ मेरुसन्दर्शनाद्देवो यो मेरुरिव सून्नतः। मेरी प्राप्ताभिषेकः स गृहमंप्यति नः स्फुटम् ॥४०॥ तदगुणोन्नतिमन्ये च स्वप्नाः संसचयस्यमी । तस्यानुरूपविनयैर्महान् पुण्योदयोऽद्य नः ॥४१॥ प्रशंसां जगति ख्यातिमनल्पा लामसंपदम् । प्राप्स्यामो नात्र सन्दिाः कुमारश्चात्र तस्ववित् ॥४२॥
के समान था और दीप्तिसे सूर्यके समान था ॥३१॥ जो पहले धनदेव था और फिर अहमिन्द्र हुआ था वह स्वर्गसे चय कर प्रजाका कल्याण करनेवाला और स्वयं कल्याणोंका निधिस्वरूप श्रेयान्सकुमार हुआ था ॥३२।। जब भगवान् इस हस्तिनापुर नगरके समीप आनेको हुए तब श्रेयान्सकुमारने रात्रिके पिछले पहरमें नीचे लिखे स्वप्न देखे ॥३३॥ प्रथम ही सुवर्णमय महा शरीरको धारण करनेवाला और अतिशय ऊँचा सुमेरु पर्वत देखा, दूसरे स्वप्न में शाखाओंके अग्रभागपर लटकते हुए आभूषणोंसे सुशोभित कल्पवृक्ष देखा, तीसरे स्वप्नमें प्रलयकालसम्बन्धी सन्ध्याकालके मेघोंके समान पीली-पीली अयालसे जिसकी प्रीवा ऊँची हो रही है ऐसा सिंह देखा, चौथे स्वप्नमें जिसके सींगके अग्रभागपर मिट्टी लगी हुई है ऐसा किनारा उखाड़ता हुआ बैल देखा, पाँचवें स्वप्नमें जिनकी कान्ति अतिशय देदीप्यमान हो रही है, और जो जगतके नेत्रोंके समान हैं ऐसे सूर्य और चन्द्रमा देखे, छठे स्वप्नमें जिसका जल बहुत ऊँची उठती हुई लहरों और रत्नोंसे सुशोभित हो रहा है ऐसा समुद्र देखा तथा सातवें स्वप्नमें अष्टमंगल द्रव्य धारण कर सामने खड़ी हुई भूत जातिके व्यन्तर देवोंकी मूर्तियाँ देखीं । इस प्रकार भगवान्के चरणकमलोंका दर्शन ही जिनका मुख्य फल है ऐसे ये ऊपर लिखे हुए सात स्वप्न श्रेयान्सकुमारने देखे ॥३४-३७॥ तदनन्तर जिसका चित्त अतिशय प्रसन्न हो रहा है ऐसे श्रेयान्सकुमारने प्रातःकालके समय विनयसहित राजा सोमप्रभके पास जाकर उनसे रात्रिके समय देखे हए वे सब स्वप्न ज्याक-त्यों कह ॥३८॥ तदनन्तर जिसकी फैलती हुई दाताकी किरण सब दिशाएँ अतिशय स्वच्छ हो गयीं हैं ऐसे पुरोहितने उन स्वप्नोंका कल्याण करनेवाला फल कहा ॥३९॥ वह कहने लगा कि हे राजकुमार, स्वप्नमें मेरुपर्वतके देखनेसे यह प्रकट होता है कि जो मेरुपर्वतके समान अतिशय उन्नत (ऊँचा अथवा उदार) है और मेरुपर्वतपर जिसका अभिषेक हुआ है ऐसा कोई देव आज अवश्य ही अपने घर आयेगा ॥४०॥ और ये अन्य स्वप्न भी उन्हींके गुणोंकी उन्नतिको सूचित करते हैं। आज उन भगवान्के योग्य की हुई विनयके द्वारा हम लोगोंके बड़े भारी पुण्यका उदय होगा ॥४१॥ आज हम लोग जगत्में बड़ी भारी प्रशंसा प्रसिद्धि और लाभसम्पदाको प्राप्त होंगे-इस विषयमें कुछ भी सन्देह नहीं है और कुमार
१. आश्रयणीयः । २. समीपमागमिष्यति सति । ३. प्रलयकालः। ४. संध्याभ्र-द०, ल०, म०। ५. उत्कट, भयंकर । ६. तटं खनन्तम् । ७. समुद्रम् । 'सरस्वान् सागरोऽर्णवः' इत्यभिधानात् । ८. रत्नाकीर्णजलम् । ९. व्यन्तरदेवतारूपाणि । १०. पुरः । ११. पुरोहितः । १२. सन्देहं न कुर्मः । १३. अस्मिन् विषये । १४. यथास्वरूपवेदी।