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आदिपुराणम्
वसन्ततिलकम् श्रीमानयं नृसुरखेचरचारणानां सेन्यो जगत्रयगुरुर्विधु'वीध्रकीर्तिः । तुङ्गः शुचिर्मरतसंश्रित पादमूलः पायाद् युवां पुरुरिवानवमो महीध्रः ॥१७९॥ इत्थं गिरः फणिपती सनयं ब्रुवाणे तौ तं गिरीन्द्रममिनन्य कृतावतारौ । प्राविक्षता सममनेन पुरं पराद्धर्थमुत्तुङ्गकेतुरथ नूपुरचक्रवालम् ॥ १८० ॥ तत्राधिरोप्य परिविष्टरमा गरी युष्माकमित्यभिं दधरखचरान्समस्तान् । राज्याभिषेकमनयोः प्रचकार धीरो विद्याधरीकरधृतैः पृथुहेमकुम्मैः ॥१८॥ मर्ता नमिर्भवतु संप्रति दक्षिणस्याः श्रेण्या दिवः शतमखोऽधिपतिर्यथैव । श्रेण्या भवेद्विनमिरप्यवनम्यमानो विद्याधरैरवहितैश्चिरमुत्तरस्याम् ॥१८२॥
जातिके देवोंकी स्त्रियाँ लज्जित हो रही हैं ॥ १७८ ॥ यह विजयाध पर्वत भी वृषभ जिनेन्द्रके समान है क्योंकि जिस प्रकार वृषभजिनेन्द्र श्रीमान् अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीसे सहित हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी श्रीमान् अर्थात् शोभासे सहित है । जिस प्रकार वृषभजिनेन्द्र मनुष्य देव विद्याधर और चारण ऋद्धि-धारी मुनियोंके द्वारा सेवनीय हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी उनके द्वारा सेवनीय है अर्थात् वे सभी इस पर्वतपर विहार करते हैं। वृषभजिनेन्द्र जिस प्रकार तीनों जगत्के गुरु हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी तीनों जगत्में गुरु अर्थात् श्रेष्ठ है। जिस प्रकार वृषभजिनेन्द्र चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कीर्तिके धारक हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी चन्द्र-तुल्य उज्ज्वल कीर्तिका धारक है, वृषभजिनेन्द्र जिस प्रकार तुंग अर्थात् उदार हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी तुंग अर्थात् ऊँचा है, वृषभजिनेन्द्र जिस प्रकार शुचि अथात् पवित्र है उसी प्रकार यह पर्वत भी शूचि अथात् शुक्ल है तथा जिस प्रकार वृषभजिनेन्द्रके पादमूल अर्थात् चरणकमल भरत चक्रवर्तीके द्वारा आश्रित हैं उसी प्रकार इस पर्वत के पादमूल अर्थात् नीचेके भाग भी दिग्विजयके समय गुफामें प्रवेश करनेके लिए भरत चक्रवर्तीके द्वारा आश्रित हैं अथवा इसके पादमूल भरत क्षेत्रमें स्थित हैं । इस प्रकार भगवान् वृषभजिनेन्द्रके समान अतिशय उत्कृष्ट यह विजया पर्वत तुम दोनोंको रक्षा करे ॥१७९।।
इस प्रकार युक्तिसहित धरणेन्द्रके वचन कहनेपर उन दोनों राजकुमारोंने भी उस गिरिराजकी प्रशंसा की और फिर उस धरणेन्द्र के साथ-साथ नीचे उतरकर अतिशय-श्रेष्ठ और ऊँची-ऊँची ध्वजाओंसे सुशोभित रथनू पुरचक्रवाल नामके नगरमें प्रवेश किया ॥१८॥ धरणेन्द्रने वहाँ दोनोंको सिंहासनपर बैठाकर सब विद्याधरोंसे कहा कि ये तुम्हारे स्वामी हैं और फिर उस धीर-वीर धरणेन्द्रने विद्याधरियोंके हाथोंसे उठाये हुए सुवर्णके बड़े-बड़े कलशोंसे इन दोनोंका राज्याभिषेक किया ।। १८१ ॥ राज्याभिषेकके बाद धरणेन्द्रने विद्याधरोंसे कहा कि जिस प्रकार इन्द्र स्वर्गका अधिपति है उसी प्रकार यह नमि अब दक्षिण श्रेणीका अधिपति हो और अनेक सावधान विद्याधरोंके द्वारा नमस्कार किया गया यह विनमि चिरकाल
१. चन्द्रवन्निर्मल । २. भरतक्षेत्रे संश्रितप्रत्यन्तपर्वतमूलः । पक्षे भरतराजेन संसेवितपादमूलः । ३. अनवमः न विद्यते अवमः अवमाननं यस्य स सुन्दर इत्यर्थः । ४. सहेतुकम् । ५. प्रशस्य । ६.विहितावतरणौ । ७. फणिराजेन । ८. ब्रुवत् । ९. सावधानः ।