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षष्ठं पर्व
१२७ अथान्येचुरसौ सुप्ता हम्ये हंसांशुनिमले । परार्घ्यरत्नसंशोभे स्वर्विमानापहासिनि ॥४४॥ तदैतदभवत्तस्याः संविधानकमीदशम् । यशोधरगुरोस्तस्मिन् पुरे कैवल्यसंभवे ॥५॥ मनोहराख्यमुद्यानमध्यासीनं तमचितुम् । देवाः संप्रापुरारूनविमानाः सह संपदा ॥८६॥ पुष्पवृष्टिर्दिशो रुद्ध्वा तदापतत् सहालिमिः । स्वर्गलक्ष्म्येव तं द्रष्टुं प्रहिता नयनावली ॥८॥ मन्दमाधूतमन्दारसान्द्रकिअल्कपिजरः । पुजितालिरुता मजुरागुअन् मरुदाववौ ॥१८॥ दंध्वनदुन्दुभिध्वान ररुध्यन्त दिशो दश । सुराणां प्रमदोद्भूतो महान् कलकलोऽप्यभूत् ॥८९॥ सा तदा तद्ध्वनि श्रुत्वा निशान्ते सहसोस्थिता । भेजे हंसीव संत्रासं श्रुतपर्जन्यनिःस्वना ॥९॥ देवागमे क्षणात्तस्याः प्राग्जन्मस्मृतिराश्वभूत् । सा स्मृत्वा ललिताङ्गं तं मुमूर्बोत्कण्ठिता मुहुः॥११॥ सखीमिरथ सोपायमाश्वास्य म्यजनानिलेः। "प्रत्यापत्ति समानीता साभूद् भूयोऽप्यवारुमुखी ॥१२॥ मनोहरं प्रमोझासि सुन्दरं चारुलक्षणम् । तद्वपुर्मनसीवास्या लिखितं निर्बभौ तदा ॥१३॥ परिपृष्टापि साशकं सखीमिर्जोषमास्त" सा । मूकीभूता किलाप्राप्ते स्तस्य मौनं ममेस्यलम् ॥९॥ ततः पर्याकुलाः सत्यः तमुदन्तमशेषतः। गत्वा पितृभ्यामाचख्युः सख्यो'" वर्षधरैः समम् ॥९५॥
तदनन्तर किसी एक दिन वह श्रीमती सूर्यकी किरणोंके समान निर्मल, महामूल्य रनोंसे शोभायमान और स्वर्गविमानको भी लज्जित करनेवाले राजभवनमें सो रही थी।८४॥ उसी दिन उससे सम्बन्ध रखनेवाली यह विचित्र घटना हुई कि उसी नगरके मनोहर नामक उद्यानमें श्रीयशोधर गुरु विराजमान थे उन्हें उसी दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए स्वर्गके देव अपनी विभूतिके साथ विमानोंपर आरूढ़ होकर उनकी पूजा करनेके लिए आये थे ॥८५-८६।। उस समय भ्रमरोंके साथ-साथ, दिशाओंको व्याप्त करनेवाली जो पुष्पवर्षा हो रही थी वह ऐसी सुशोभित होती थी मानो यशोधर महाराजके दर्शन करनेके लिए स्वर्गलक्ष्मी-द्वारा भेजी हुई नेत्रोंकी परम्परा ही हो ॥८७॥ उस समय मन्द-मन्द हिलते हुए मन्दारवृक्षोंकी सघन केशरसे कुछ पीला हुआ तथा इकट्ठे हुए भ्रमरोंकी गुंजारसे मनोहर वायु शब्द करता हुआ बह रहा था॥८॥ और बजते हुए दुन्दुभि बाजोंके शब्दोंसे दसों दिशाओंको व्याप्त करता हुआ देवोंके हर्षसे उत्पन्न होनेवाला बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था ।।८९|| वह श्रीमती प्रातःकालके समय अकस्मात् उस कोलाहलको सुनकर उठी और मेघोंकी गर्जना सुनकर डरी हुई हंसिनीके समान भयभीत हो गयी ।।१०।। उस समय देवोंका आगमन देखकर उसे शीघ्र ही पूर्वजन्मका स्मरण हो आया, जिससे वह ललिताङ्गदेवका स्मरण कर बार-बार उत्कण्ठित होती हुईमर्थित हो गयी ॥९शा तत्पश्चात् सखियोंने अनेक शीतलोपचार और पंखाकी वायुसे आश्वासन देकर उसे सचेत किया परन्तु फिर भी उसने अपना मुँह ऊपर नहीं उठाया ॥९२ ॥ उस समय मनोहर, प्रभासे देदीप्यमान, सुन्दर और अनेक उत्तम-उत्तम लक्षणोंसे सहित उस ललिताङ्गका शरीर श्रीमतीके हृदयमें लिखे हुएके समान शोभायमान हो रहा था ॥ ९३ ॥ अनेक आशंकाएँ करती हुई सखियोंने उससे उसका कारण भी पूछा परन्तु वह चुपचाप बैठो रही। ललिताङ्गकी प्राप्ति पर्यन्त मुझे मौन रखना ही श्रेयस्कर है ऐसा सोचकर मौन रह गयी ।। ९४ ॥ तदनन्तर घबड़ायी हुई सखियोंने पहरेदारोंके साथ जाकर उसके माता-पितासे सब वृत्तान्त कह सुनाया
१. हंसांसनिर्मले द०, ८० । हंसपक्षवच्छुभे। २. पराय॑म् उत्कृष्टम् । ३. सामग्री। ४. उत्पन्ने सति । ५. रुदा ल.। ६. मनोज्ञः। ७-नैरारुल्धस्तद्दिशो दश अ०, ल.। ८. जयजयारावकोलाहलः । ९. अशनिः । [ रसदन्दः गर्जन्मेष इत्यर्थः] १०. तिरन्वभूत् अ०। ११. पूर्वस्थितिम् । १२. अधोमुखी। १३. हलकुलिशादि। १४. आशड्या सहितं यथा भवति तथा। १५. तूष्णीमास्त । १६. प्राप्तिपर्यन्तम् । १७. वृद्धकञ्चुकीभिः ।
विभूत अD vs पूस्थिति