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दशमं पर्व
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केशवश्च परित्यक्तकृत्स्नबाह्येतरोपधिः। नैःसंगीमाश्रितो दीक्षामतीन्द्रोऽमवदच्युते ॥१७॥ पूर्वोक्का नृपपुत्राश्च वरदत्तादयः क्रमात् । समजायन्त पुण्यैः स्वैस्तत्र सामानिकाः सुराः ॥१७२॥ तत्राष्टगुणमैश्वर्य दिव्यं भोगं च निर्विशन् । स रेमे सुचिरं कालमच्युतेन्द्रोऽच्युतस्थितिः ॥१७३॥ दिव्यानुभावमस्यासीद् वपुरब्याजसुन्दरम् । विषशनादिबाधामिरस्पृष्टमतिनिर्मलम् ॥१७॥ सन्तानकुसुनोत्तंसमसौ धत्ते स्म मौलिना । तपः फलमतिस्फीतं मूनेंवोद्धस्य दर्शयन् ॥१७५॥ सहजैर्भूषणैरस्य रुरुचे रुचिरं वपुः । दयावल्लीफलैरुदैः प्रत्यङ्गमिव संगतैः ॥१७६॥ समं सुप्रविमक्ताङ्गः स रेजे दिग्यलक्षणैः । सुरम इवाकीर्णः पुष्पैरुच्चावचास्ममिः ॥१७७॥ शिरः सकुन्तलं तस्य रेजे सोष्णीषपट्टकम् । सतमालमिवादीन्द्रकूट ब्योमापगाश्रितम् ॥१७॥ मुखमस्य लसन्नेत्रभृङ्गसंगतमावभौ । स्मितांशुमिर्जलाक्रान्तं प्रबुद्धमिव पक्जम् ॥१७९॥ वक्षःस्थले पृथौ रम्ये हारं सोऽधत्त निर्मलम् । शरदम्भोदसंघातमिव मेरोस्तटाश्रितम् ॥१८॥ लसदंशकसंवीतं जघनं तस्य निर्बभौ । तरझाक्रान्तमम्मोधेरिव सैकतमण्डलम् ॥१८॥ सवर्णकदलीस्तम्मविश्नमं रुचिमानशे । तस्योरुद्वितयं चारु सुरनारीमनोहरम् ॥१८॥
और उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं ॥ १७० ॥ श्रीमतीके जीव केशवने भी समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर निन्थ दीक्षा धारण की और आयुके अन्तमें अच्युत स्वर्गमें प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया ।। १७१ ।। जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसे वरदत्त आदि राजपुत्र भी अपने-अपने पुण्यके उदयसे उसी अच्युत स्वर्गमें सामानिक जातिके देव हुए ॥१७२।। पूर्ण आयुको धारण करनेवाला वह अच्युत स्वर्गका इन्द्र अणिमा, महिमा आदि आठ गुण, ऐश्वर्य और दिव्य भोगोंका अनुभव करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता था ॥ १७३ ।। उसका शरीर दिव्य प्रभावसे सहित था, स्वभावसे ही सुन्दर था, विष-शस्त्र आदिकी वाधासे रहित था और अत्यन्त निर्मल था ॥ १७४ ।। वह अपने मस्तकपर कल्पवृक्षके पुष्पोंका सेहरा धारण करता था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो पूर्वभवमें किये - हुए तपश्चरणके विशाल फलको मस्तकपर उठाकर सबको दिखा ही रहा हो । १७५ ॥ उसका सुन्दर शरीर साथ-साथ उत्पन्न हुए आभूषणोंसे ऐसा मालूम होता था मानो उसके प्रत्येक पर दयारूपी लताके प्रशंसनीय फल ही लग रहे हैं ।। १७६ ॥ समचतुरस्र संस्थानका धारक वह इन्द्र अपने अनेक दिव्य लक्षणोंसे ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि ऊँचे-नीचे सभी प्रदेशोंमें स्थित फूलोंसे व्याप्त हुआ कल्पवृक्ष सुशोभित होता है ।। १७७॥ काले काले केश और श्वेतवर्णकी पगड़ीसे सहित उसका मस्तक ऐसा जान पड़ता था मानो तापिच्छ पुष्पसे सहित और आकाशगंगाके पूरसे युक्त हिमालयका शिखर ही हो ॥ १७८ ॥ उस इन्द्रका मुखकमल फूले हुए कमलके समान शोभायमान था, क्योंकि जिस प्रकार कमलपर भौरे होते हैं उसी प्रकार उसके मुखपर शोभायमान नेत्र थे और कमल जिस प्रकार जलसे आक्रान्त होता है उसी प्रकार उसका मुख भी मुसकानकी सफेद-सफेद किरणोंसे आक्रान्त था।।१७९||वह अपने मनोहर और विशाल वक्षःस्थलपर जिस निर्मल हारकोधारण कर रहा था वह ऐसा मालूम होता था मानो मेरु पर्वतके तटपर अवलम्बित शरद् ऋतुके बादलोंका समूह ही हो॥१८०॥ शोभायमान वस्त्रसे ढंका हुआ उसका नितम्बमण्डल ऐसाशोभायमान हो रहा था मानो लहरोंसे ढंका हुआ समुद्रका बालूदार टीला ही हो॥१८शादेवाङ्गनाओंके मनको हरण करनेवाले उसके दोनों सुन्दर ऊरु सुवर्ण कदलीके स्तम्भोंका सन्देह करते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ॥१॥
१. दिव्यप्रभावम् । २. प्रशस्तैः। ३. अनेकभेदात्मभिः। ४. -तटश्रितम म०, ल० । ५. वेष्टितम् ।