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सप्तदर्श पर्व
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त्रिलोकपावन पुण्य' जैन श्रुतिमिवामलाम् । प्रव्रज्यां दधते तुभ्यं नमः सार्वाय शंभवे ॥२२७॥ "बिध्यापितजगत्तापा जगतामेकपावनी। स्वर्धुनीव पुनीयाओ दीक्षेयं पारमेश्वरी ॥२२८॥ "सुवर्णा रुचिरा हृथा "रत्नैदीं' 'प्रेरलं कृता । "रेधारेवामिनि क्रान्तिः यौष्माकीयं धिनोति "नः॥२२९॥ 'मुक्तावुत्तिष्ठ' "मानस्त्वं तत्कालोपनतैः “ सितैः” । प्रबुद्धः परिणामैः प्राक् पश्चाल्लौकान्तिकामरैः॥२३०॥ परिनिष्क्रमणे योऽयमभिप्रायो जगत्सृजः । स ते यतः स्त्रतो जातः स्वयं बुद्धोऽस्यतो मुनेः ॥२३१॥ राज्यलक्ष्मीमसंमोग्यामाकलय्य चलामिमाम् । क्लेशहानाय" निर्वाणदीक्षां त्वं प्रत्यपद्यथाः ॥ २३२॥ स्नेहाला नकमुन्मूल्य विशतोऽद्य वनं तत्र । न कश्चित् प्रतिरोधोऽभून्मदान्धस्येव दन्तिनः ॥२३३॥ स्वप्नसंभोग निर्भासा मोगाः संपठाणइवरों" । जीवितं चलमिव्याधास्वं २५ २६ मनः शाश्वते पथि ॥ २३४ ॥
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द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी बहिरंग तथा अन्तरंग मलके हट जानेसे आपके गुण स्फुरित हो रहे हैं ||२२६|| हे भगवन्, आप जिनवाणीके समान मनुष्यलोकको पवित्र करनेवाली पुण्यरूप निर्मल जिनदीक्षाको धारण कर रहे हैं इसके सिवाय आप सबका हित करनेवाले हैं और सुख देनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ||२२७|| हे भगवन्, आपकी यह पारमेश्वरी दीक्षा गंगा नदीके समान जगत्त्रयका सन्ताप दूर करनेवाली है और तीनों जगत्को मुख्य रूपसे पवित्र करनेवाली है, ऐसी यह आपकी दीक्षा हम लोगोंको सदा पवित्र करे ।। २२८|| हे भगवन्, आपको यह दीक्षा धनकी धाराके समान हम लोगोंको सन्तुष्ट कर रही है क्योंकि जिस प्रकार धनकी धारा सुवर्णा अर्थात् सुवर्णमय होती है उसी प्रकार यह दीक्षा भी सुवर्णा अर्थात् उत्तम यशसे सहित है। धनकी धारा जिस प्रकार रुचिरा अर्थात् कान्तियुक्त मनोहर होती है उसी प्रकार यह दीक्षा भी रुचिरा अर्थात् सम्यक्त्वभावको देनेवाली है ( रुचि श्रद्धां राति ददातीति रुचिरा ) धनकी धारा जिस प्रकार हृद्या अर्थात् हृदयको प्रिय लगती है, उसी प्रकार यह दीक्षा भी हृद्या अर्थात् संयमीजनोंके हृदयको प्रिय लगती है और धनकी धारा जिस प्रकार देदीप्यमान रत्नोंसे अलंकृत होती है उसी प्रकार यह दीक्षा भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी देदीप्यमान रत्नोंसे अलंकृत है ।। २२९ ।। हे भगवन्, मुक्तिके लिए उद्योग करनेवाले आप तत्कालीन अपने निर्मल परिणामोंके द्वारा पहले ही प्रबुद्ध हो चुके थे, लौकान्तिक देवोंने तो नियोगवश पीछे आकर प्रतिबोधित किया था ।। २३० ॥ हे मुनिनाथ, जगत्की सृष्टि करनेवाले आपका, दीक्षा धारण करनेके विषयमें जो यह अभिप्राय हुआ है वह आपको स्वयं ही प्राप्त हुआ है इसलिए आप स्वयम्बुद्ध हैं ।। २३१ ।। हे नाथ, आप इस राज्य - लक्ष्मीको भोगके अयोग्य तथा चंचल समझकर ही क्लेश नष्ट करनेके लिए निर्वाणदीक्षाको प्राप्त हुए हैं ।। २३२ ।। हे भगवन्, मत्त हस्तीकी तरह स्नेहरूपी खूँटा उखाड़कर वनमें प्रवेश करते हुए आपको आज कोई भी नहीं रोक सकता है ।। २३३ ।। हे देव, ये भोग स्वप्न में भोगे हुए भोगोंके समान हैं, यह सम्पदा नष्ट हो जानेवाली है और यह जीवन भी चंचल है यही
१. पवित्राम् । २. आगमम् ३. देघानाय । ४. सर्वप्राणिहितोपदेशकाय । ५. निर्वाचित । ६. परमेश्वरस्पेयम् । ७. क्षत्रियादिवर्णा, पक्षे शोभनकान्तिमती च । सुवर्णरुचिता द०, म०, इ०, स०, ल० । ८. नेत्रहारिणी । ९. मनोहारिणी । १०. रत्नत्रयैः । ११. दीप्ते - अ०, म०, स०, ल० । १२. रत्नवृष्टिः । १३. परिनिष्क्रमणम् । १४. युष्मत्संबन्धिनी । १५. प्रीणाति । १६. मोक्षार्थम् । १७. उद्योगं कुर्वाणः । १८. उपागतैः । १९. शुद्धेः । २०. यातः अ०, प०, ६०, स०, म०, ल० । २१. नाशाय । २२. बन्धस्तम्भम् । २३. प्रतिबन्धकः । २४. समानाः । २५. विनाशशीला । २६. करोषि ।
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