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आदिपुराणम् लताभवनविश्रान्तकिमरोद्गीतिनिःस्वनैः । सदा रम्यान् वनोद्देशान् दधानमधिमेखलम् ॥१५६॥ लतागृहान्त राबद्धदोलारूढन भश्चरीः । वनाधिदेवतादेश्या वहन्तं वनवीथिषु ॥१५॥ संचरत्खचरीवक्त्रपङ्कजैः प्रतिबिम्बितैः । प्रोद्वहन्तं महानीलस्थलीरूढाब्जिनी श्रियः ॥१५८॥ विचरत्खचरीचारुचरणालक्तकारुणाः । कृतार्चा इव रक्ताब्जर्दधतं स्फाटिकीः स्थलीः १५९॥ विदूरलजिनो धीरध्वनितानमलच्छवीन् । मिर्झरानिव विभ्राणं मृगेन्द्रानधिकन्दरम् ॥१६॥ अध्युपत्यकमारूढप्रणयान सुरदम्पतीन् । सम्भोगान्ते कृतातोच विनोदान दमतं मिथः ॥१६॥ श्रेणीद्वयं वितत्य स्वं" पक्षद्वयमिवायतम् । विद्याधराधिवसती र्धारयन्तं पुरीः पराः ॥१२॥ "अध्यधित्यकमाबद्धकेतनैरिव निझरान् । दधद्भिः शिखरैः खाग्रं लक्ष्यन्तमिवोच्छ्रितैः ॥१६३॥ अच्छिन्नधारमाच्छे' दानिर्झरः शिखरसुतैः । जगमाडीमिवोन्मातुं विस्तायतदण्डकम् ॥१६॥ चन्द्रकान्तोपलैश्चन्द्रकरामदिनुक्षपम् । क्षरविमीत्येव सिञ्चन्तं स्वतटदुमान् ॥१६५॥
को चारों ओरसे काले वस्त्रोंके द्वारा ढक ही रहा हो ॥१५५।। वह पर्वत अपनी मेखलापर ऐसे प्रदेशोंको धारण कर रहा था जो कि लताभवनों में विश्राम करनेवाले किन्नर देवोंके मधुर गीतोंके शब्दोंसे सदा सुन्दर रहते थे ॥१५६।। उस पर्वतपर वनकी गलियोंमें लतागृहोंके भीतर पड़े हुए झूलोंपर झूलती हुई विद्याधरियाँ वनदेवताओंके समान मालूम होती थीं ॥१५७।। उस पर्वतपर जो इधर-उधर घूमती हुई विद्याधरियोंके मुखरूपी कमलोंके प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे उनसे वह ऐसा मालूम होता था मानो नीलमणिको जमीनमें जमी हुई कमलिनियोंकी शोभा ही धारण कर रहा हो ॥१५८|| वह पर्वत स्फटिकमणिकी बनी हुई उन प्राकृतिक भूमियोंको धारण कर रहा था जो कि इधर-उधर टहलती हुई विद्याधरियोंके सुन्दर चरणोंमें लगे हुए महावरसे लाल वर्ण होनेके कारण ऐसी जान पड़ती थीं मानो लाल कमलोंसे उनकी पूजा हो की गयी हो ॥१५९॥ वह पर्वत अपनी गुफाओंमें निर्झरनोंके समान सिंहोंको धारण कर रहा था क्योंकि वे सिंह निर्झरनोंके समान ही विदूरलंघी अर्थात् दूर तक लाँघनेवाले, गम्भीर शब्दोंसे युक्त और निर्मल कान्तिके धारक थे ॥१६०॥ वह :वत अपनी उपत्यका अर्थात् समीपकी भूमिपर सदा ऐसे देव-देवियोंको धारण करता था जो परस्पर प्रेमसे युक्त थे और सम्भोग करनेके अनन्तर वीणा आदि बाजे बजाकर विनोद किया करते थे॥१६१।। उस पर्वतकी उत्तर और दक्षिण ऐसी दो श्रेणियाँ थीं जो कि दो-पंखोंके समान बहत ही लम्बी थीं और उन श्रेणियोंमें विद्याधरोंके निवास करनेके योग्य अनेक उत्तम-उत्तम नगरियाँ थीं ।।१६।। उस पर्वत के शिखरोंपर जो अनेक निर्झरने बह रहे थे उनसे वे शिखर ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके ऊपरी भागपर पताकाएँ ही फहरा रही हों और ऐसे-ऐसे ऊँचे शिखरोंसे वह पर्वत ऐसा मालूम होता था मानो आकाशके अग्रभागका उल्लंघन ही कर रहा हो ॥१६३|| शिखरसे लेकर जमीन तक जिनकी अखण्ड धारा पड़ रही है ऐसे निर्झनोंसे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो लोकनाडीको नापनेके लिए उसने एक लम्बा दण्ड ही धारण किया हो ॥१६४।। चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे जिनसे प्रत्येक रात्रिको पानीकी धारा बहने लगती है ऐसे चन्द्रकान्तमणियोंके द्वारा वह पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो दावानलके डरसे अपने किनारेके वृक्षोंको ही सींच
१. श्रेण्याम् । २. मध्यरचितप्रेङ्ङ्खलाऽधिरूढ । ३. दोलारूढा नभ- अ०, ५०। ४. सदृशाः । ५. प्रतिबिम्बकः अ०, म०, ल०, स०। ६. धत । ७. कृतोपहाराः। ८. कन्दरे तटे। ९. आसन्नभ उपत्यका अनेरासना भूमिः । १०. विस्तृत्य प्रसार्येत्यर्थः । ११. आत्मीयम् । १२. अधिवासः । १३. पुरीवराः व०।१४. सानुमध्ये । १५. आ अवधेः । आ भूमिभागादित्यर्थः । १६. रात्री।
मोकामा । आपको