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एकोनविंशं पर्व
इति यदेव यदेव निरूप्यते बहुविशेषगुणेऽत्र नगाधिपे ।
किमु तदेव तदेव सुखावहं हृदयहारि दशां च विलोभनम् ॥ ११६॥
इन्द्रवज्रा
धत्तेऽस्य साना कुसुमाचितेयं नीलावनालीपरिधानलक्ष्मीम् । शृङ्गाग्रलग्ना च सिताम्रपक्तिः संध्यानलीलामियमातनोति ॥ ११७ ॥
उपेन्द्रवज्रा
'तिरस्करिण्येव सिताम्रपङ्क्त्या परिष्कृतान्तेऽस्य निकुलदेशे । मणिप्रमोत्सर्पहतान्धकारे समं रमन्ते खचरैः खचर्यः ॥ ११८ ॥
वंशस्थवृत्तम्
शरद् वनस्योपरि सुस्थिते घने वितानतां तन्वति खेचराङ्गनाः । कृतालयास्तत्र' चिरं रिरंसया घनातपेऽप्यह्नि न जानते क्लमम् ॥ ११९ ॥ समुल्लसन्नीलमणिप्रभाप्लुतान् शरद्वनान् कालघनाघनाथितान् । विलोक्य हृष्टोऽत्र स्वनू" शिखाबल : " प्रनृत्यति न्यातत बर्हमुन्मदः ॥ १२०॥
रुचिरावृत्तम्
सितान् घनानिह तटसंश्रितानिमान् स्थळास्थया समुपागताः खगाङ्गनाः । दुकूल संस्तरण इवातिविस्तृते विशायिका' 'मुपरचयन्ति ततले ॥ १२१ ॥
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हैं ॥११५ || इस प्रकार अनेक विशेष गुणोंसे सहित इस पर्वतपर जिसे देखो वही सुख देनेवाला, हृदयको हरण करनेवाला और आँखोंको लुभानेवाला जान पड़ता है ||११६ ।।
इस पर्वत के नीचले शिखरों पर जो फूलोंसे व्याप्त हरी-हरी वनकी पंक्ति दिखाई दे रही है वह इस पर्वतकी धोतीकी शोभा धारण कर रही है और शिखर के अग्रभागपर जो सफेदसफेद बादलोंकी पंक्ति लग रही है वह इसकी पगड़ीकी शोभा बढ़ा रही है ॥११७॥ जिनका अन्तभाग परड़ाके समान सफेद बादलोंकी पंक्तिसे ढका हुआ है और मणियोंकी प्रभाके प्रसारसे जिनका सब अन्धकार नष्ट हो गया है ऐसे इस पर्वत के लतागृहों में विद्याधरियाँ विद्याधरों के साथ क्रीड़ा कर रही हैं ॥११८॥ इस पर्वतके ऊपर शरदऋतुका मोटा बादल चंदोवाकी शोभा बढ़ाता हुआ हमेशा स्थिर रहता है इसलिए विद्याधरियाँ चिरकाल तक रमण करने की इच्छासे वहीं पर अपना घर-सा बना लेती हैं और गरमीके दिनोंमें भी गरमीका दुःख नहीं जानतीं ॥ ११९ ॥ ये शरदऋतुके बादल भी चमकते हुए इन्द्रनीलमणियोंकी प्रभामें डूबकर काले बादलोंके समान हो रहे हैं, इन्हें देखकर ये मयूर हर्षित हो रहे हैं और उन्मत्त होकर शब्द करते हुए पूँछ फैलाकर सुन्दर नृत्य कर रहे हैं || १२०|| इधर ये विद्याधरोंकी स्त्रियाँ पर्वतके किनारे में मिले हुए सफेद बादलोंको स्थल समझकर उनके पास पहुँची हैं और उनपर इस प्रकार शय्या बना रही हैं मानो बिछे हुए किसी लम्बे-चौड़े रेशमकी जाजमपर ही बना रही
१. किमुत । २. लोभकरम् । ३. अधोंऽशुकशोभाम् । ४. उत्तरीयविलासम् । ५. यवनिकया । 'प्रतिसीरा यवनिका स्यात्तिरस्करिणी च सा' इत्यभिधानात् । ६. वेष्टित । ७. शरद्धनेऽस्योपरि ल०, म० । ८. मेघद्वयमध्ये । ९. कृष्णमेघ इवाचरितान् । १०. ध्वनन् । ११. के को। १२. विस्तृतपिच्छे यथा भवति तथा । १३. शय्यायाम् । १४. शयनम् ॥