________________
एकोनविंशं पर्व
४२९ सुरसरिजलसिक्त तटगुमो जलद चुम्बितसानुबनोदयः । मणिमयैः शिखरेः 'खच्चरोषितैर्विजयते गिरिरेष सुरावलान् ॥१२॥ सुरनदीसलिलप्लुतपादपैस्तटवनैः कुसुमान्चितमू मिः । मुखरितालिमिरेष महाचलो बिहसतीव सरोपवन श्रियम् ॥१०॥ इयमितः सुरसिन्धुरपां स्टाः प्रकिरतीह विभाति पुरो दिशि । वहति सिन्धुरितश्च महानदी मुखरिता कलहंसकलस्वनैः ॥१०॥ हिमवतः शिरसः किल निःसृते सकमलालयतः सरिताविमे । शुचितयास्य तु पादमुपाश्रिते शुचिरलाध्यतरो हि योचतेः ॥१.५॥ इह सदैव सदैवविचेष्टितैः "सुकृतिनः ''कृतिनः खचराधिपाः । कृतनयास्तनया इव सपितुः समुपयान्ति फलान्यमुतो गिरेः ॥१०॥ क्षितिरकृष्टपचेलिमसस्यसूः खनिरयनजरत्नविशेषसूः। इह वनस्पतयश्च सदोबता दधति पुष्पफलर्दिमकालजाम् ॥१०७॥ सरसि सारसहसविकृजितैः कुसुमितासुकतास्वलिनिःस्वनैः ।
उपवनेषु च कोकिलनिक्वणेहूदियोऽत्र सदैव विनिद्रितः ॥१०॥ का भी मन ललचाता रहता है तब विद्याधरोंकी तो बात ही क्या है ? ॥१०१।।जिसके किनारेपर उगे हुए वृक्ष गङ्गा नदीके जलसे सींचे जा रहे हैं और जिसके शिखरोंपर के वन मेघोंसे चुम्बित हो रहे हैं ऐसा यह विजया पर्वत विद्याधरोंसे सेवित अपने मणिमय शिखरों-द्वारा मेरु पर्वतों को भी जीत रहा है ॥१०२।। जिनके वृक्ष गंगा नदीके जलसे सींचे हुए हैं, जिनके अग्रभाग फूलोंसे सुशोभित हो रहे हैं और जिनमें अनेक भ्रमर शब्द कर रहे हैं ऐसे किनारेके उपवनोंसे यह पर्वत ऐसा मालूम होता है मानो देवोंके उपवनोंकी शोभाकी हँसी ही कर रहा हो॥१०३।। इधर यह पूर्व दिशाकी ओर जलके छींटोंकी वर्षा करती हुई गंगा नदी सुशोभित हो रही है और इधर यह पश्चिमकी ओर कलहंस पक्षियोंके मधुर शब्दोंसे शब्दायमान सिन्धु नदी बह रही है ॥१०४॥ यद्यपि यह दोनों ही गंगा और सिन्धु नदियाँ हिमवत् पर्वतके मस्तकपरके पननामक सरोवरसे निकली हैं तथापि शुचिता अर्थात् पवित्रताके कारण (पक्षमें शुक्लताके कारण) इस विजयार्धके पाद अर्थात् चरणों (पक्ष में प्रत्यन्तपर्वत) की सेवा करती हैं सो ठीक है क्योंकि जो पवित्र होता है उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। पवित्रताके सामने ऊँचाई व्यर्थ है। भावार्थ-गंगा और सिन्धु नदी हिमवत् पर्वतके पद्म नामक सरोवरसे निकल कर गुहाद्वारसे विजया पर्वतके नीचे होकर बहती हैं। इसी बातका कविने आलंकारिक ढंगसे वर्णन किया है। यहाँ शुचि और शुक्ल शब्द श्लिष्ट हैं॥ १०५ ॥ जिस प्रकार नीतिमान पुत्र श्रेष्ठ पितासे मनवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं उसी प्रकार पुण्यात्मा, कार्यकुशल और नीतिमान विद्याधर अपने भाग्य और पुरुषार्थ के द्वारा इस पर्वतसे सदा मनवाञ्छित फल प्राप्त किया करते हैं ॥१०६।। यहाँको पृथ्वी बिना बोये ही धान्य उत्पन्न करती रहती है, यहाँकी खाने बिना प्रयत्न किये ही उत्तम उत्तम रत्न पैदा करती हैं और यहाँके ऊँचे-ऊँचे वृक्ष भी असमयमें उत्पन्न हुए पुष्प और फलरूप सम्पत्तिको सदा धारण करते रहते हैं ॥१०७। यहाँके सरोवरोंपर सारस और हंस पक्षी सदा शब्द करते रहते हैं, फूली हुई लताओंपर भ्रमर गुंजार करते रहते हैं और उपवनोंमें कोयले शब्द करती रहती हैं जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो यहाँ कामदेव
१. 'तटीद्रुमो' इति क्वचित् पाठः । २. विद्यापराश्रितः । ३. कुलाचलान् द० । ४. कुसमाचित ब.। ५. गंगा। ६. पद्मसरोवरसहितात् । ७. वृथा उन्नतिर्यस्य तत्सकाशात् । थोन्नति: ल.।
८. अनारतमेव। ९. पुण्यसहित । १०. पुण्यवन्तः । ११. कुशलाः । १२. मदनः । १३. विगतनिद्रः ।।