________________
४१८
आदिपुराणाम्
मालिनीच्छन्दः मदकलकलकण्ठी डिण्डिमारावरम्या
___मधुरविरुतभृङ्गीमङ्गलोद्गीतिहयाः । परितकुसुमार्थाः संपतमिर्मरुद्भिः ..
___. फणिपतिमिव दूरात् प्रत्युदीयुनान्ताः ॥२०॥ रजतगिरिमहीन्द्रो नातिदूरादुदारं .
प्रसवभवनमेकं विश्वविद्यानिधीनाम् । जिनमिव भुवनान्तापि कीर्ति प्रपश्यन्
अमदमबि मरन्तः सार्द्धमाभ्यां युवाभ्याम् ॥२०९॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
धरणेन्द्रविजयाधोपगमनं नामाष्टादशं पर्व ॥१८॥
मार्गका सब परिश्रम दूर कर दिया था ।।२०७।। उस पर्वतके वन प्रदेशोंसे प्रचलित हुआ पवन दूर-दूरसे ही धरणेन्द्रके समीप आ रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उस पर्वतके वनप्रदेश ही धरणेन्द्रके सम्मुख आ रहे हों क्योंकि वे वनप्रदेश मदोन्मत्त सुन्दर कोयलोंके शब्दरूपी वादित्रोंकी ध्वनिसे शब्दायमान हो रहे थे, भ्रमरियोंके मधुर गुञ्जाररूपी मङ्गलगानोंसे मनोहर थे और पुष्परूपी अर्घ धारण कर रहे थे ॥२०८॥ इस प्रकार जो बहुत ही उदार अर्थात् ऊँचा है, जो समस्त विद्यारूपी खजानोंकी उत्पत्तिका मुख्य स्थान है और जिसकी कीर्ति समस्त लोकके भीतर व्याप्त हो रही है, ऐसे जिनेन्द्रदेवके समान सुशोभित उस विजया पर्वतको समीपसे देखता हुआ वह धरणेन्द्र उन दोनों राजकुमारोंके साथ-साथ अपने मनमें बहुत ही प्रसन्न हुआ ॥२०॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहमें धरणेन्द्रका विजयार्ध पर्वतपर जाना आदिका वर्णन करनेवाला
अठारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१८॥
अभिमुखमाययुः । २. विद्याधराणाम् । ३. -ाप्ति-ब०। ४. अधात् । ५. मनसि ।