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एकोनविंशं पर्व
अथास्य मेखलामायामवतीर्णः फणीश्वरः । तत्र व्योमचरन्द्राणां लोकं तापित्यदीदशत् ॥१॥ अयं गिरिरसंभूष्णुः नमूवं महत्तया। वितत्य तिर्यगारमानमवगाढो महार्णवम् ॥२॥ श्रेण्यौ सदानपायिन्यौ भूभृतोऽस्य विराजतः । देण्याविव महामोग संपन्ने विधुतायती ॥३॥ योजनानि दशोपरय गिरेरस्याधिमेखलम् । विद्याधरनिवासोऽयं भाति स्वर्गक देशवत् ॥४॥ विद्याधरा विभान्स्यस्मिन् श्रेणीद्वयमधिष्ठिताः" । स्वर्गादिव समागत्य कृतवासाः सुधाशनाः ॥५॥ विद्याधराधिवासोऽयं धत्तेऽस्मल्लोकविभ्रमम् । निषेवितो महामोगैः फणीन्द्ररिव खेचरैः ॥६॥ "पातालस्वर्गलोकस्य सत्यमय स्मराम्यहम् । नागकन्या इव प्रेक्ष्याः" पश्यन् खचरकन्यकाः ॥७॥ नात्र प्रतिभयं तीनं स्वचक्रपरचक्रजम् । नेतयो नैव रोगादिवाधाः सन्तीह जातुचित् ॥८॥
अथानन्तर वह धरणेन्द्र उस विजया पर्वतकी पहली मेखलापर उतरा और वहाँ उसने दोनों राजकुमारोंके लिए विद्याधरोंका वह लोक इस प्रकार कहते हुए दिखलाया ॥१॥ कि ऐसा मालूम होता है मानो यह पर्वत बहुत भारी होनेके कारण इससे अधिक ऊपर जानेके लिए समर्थ नहीं था इसीलिए इसने अपने-आपको इधर-उधर दोनों ओर फैलाकर समुद्र में जाकर मिला दिया है ।।२॥ यह पर्वत एक राजाके समान सुशोभित है और कभी नष्ट न होनेवाली इसकी ये दोनों श्रेणियाँ महादेवियोंके समान सुशोभित हो रही हैं क्योंकि जिस प्रकार महादेवियाँ महाभोग अर्थात् भोगोपभोगकी विपुल सामग्रीसे सहित होती हैं उसी प्रकार ये श्रेणियाँ भो महाभोग ( महा आभोग) अर्थात् बड़े भारी विस्तारसे सहित हैं और जिस प्रकार महादेवियाँ आयति अर्थात् सुन्दर भविष्यको धारण करनेवाली होती हैं उसी प्रकार ये श्रेणियाँ भी आयति अर्थात् लम्बाईको धारण करनेवाली हैं ॥३।। पृथिवीसे दस योजन ऊँचा चढ़कर इस पर्वतकी प्रथम मेखलापर यह विद्याधरोंका निवासस्थान है जो कि स्वर्गके एक खण्डके समान शोभायमान हो रहा है ॥४॥ इस पर्वतकी दोनों श्रेणियोंमें रहनेवाले विद्याधर ऐसे मालूम होते हैं मानो स्वर्गसे आकर देव लोग ही यहाँ निवास करने लगे हों ।।५।। यह विद्याधरोंका स्थान हम लोगोंके निवासस्थानका सन्देह कर रहा है क्योंकि जिस प्रकार हम लोगों (धरणेन्द्रों) का स्थान महाभोग अर्थात् बड़े-बड़े फणोंको धारण करनेवाले नागेन्द्रोंके द्वारा सेवित होता है उसी प्रकार यह विद्याधरोंका स्थान भी महाभोग अर्थात् बड़े-बड़े भोगोपभोगोंको धारण करनेवाले विद्याधरोंके द्वास सेवित है॥६॥ नागकन्याओंके समान सुन्दर इन विद्याधर कन्याओंको देखता हुआ सचमुच ही आज मैं पातालके स्वर्गलोकका अर्थात् भवनवासियोंके निवासस्थानका स्मरण कर रहा हूँ ॥७॥ यहाँ न तो अपने राजाओंसे उत्पन्न हुआ तीव्र भय है और न शत्रु राजाओंसे उत्पन्न होनेवाला तीनभय है, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियाँ भी यहाँ नहीं होती हैं और न यहाँ रोग आदिसे उत्पन्न होनेवाली कभी कोई बाधा ही होती है।।क्षा
१. कुमारी। २. दर्शयति स्म । ३. अनाद्य निधनः । ४. विस्तृय । ५. प्रविष्टः । ६. परिपूर्णता, पक्षे सुख । ७. धृतर्दध्ये, पक्षे धृतथियो। ८. उत्क्रम्य । ९. घेण्याम् । १०. स्वर्गकखण्डवत् ल., म.. ११. आश्रिताः । १२. 'सुधाशिनः' इत्यपि पाठः । १३. विलासम् । १४. महासुखैः, पक्षे महाफणः । १५. भवनामरलोकस्य । १६. दर्शनीयाः । १७. भीतिः । १८. अतिवृष्ट्यादयः ।