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आदिपुराणम्. प्रारम्भ चापवर्ग' च तुर्यकालस्य या स्थितिः । महाभारतवर्षेऽस्मिन् नात्रीरकर्षाप कषतः ॥९॥ परा स्थितिर्नृणां पूर्वकोटिवर्षशतान्तरे । उस्सेधहानिरासप्तारस्निः पञ्चधनुः शतात् ॥१०॥ कर्मभूमिनियोगो यः स सर्वोऽप्यत्र पुष्कलः । विशेषस्तु महाविद्या ददत्येषां ममीप्सितम् ॥११॥ महाप्रज्ञप्तिविद्याद्याः सिद्ध-यन्तीह खगशिनाम् । विद्याः कामदुधायास्ताः फलिप्यन्तीप्सितं फलम्॥१२॥ कुलजात्याश्रिता विद्यास्तपोविद्याश्च ता द्विधाः । कुलाम्नायागताः पूर्वा यत्नेनाराधिताः पराः ॥१३॥ तासामाराधनोपायः''सिद्धायतनसंनिधौ । अन्यत्र वाशुचौ देशे द्वीपाद्रिपुलिनादिके ॥१४॥ ..... - संपूज्य शुचिवेषेण विद्यादेवव्रताश्रितः । महोपवासैराराध्या नित्यार्चनपुरःसरः ॥१५॥ सिद्धयन्ति विधिनानेन महाविद्या नभोजुषाम् । "पुरश्चरणनित्यार्चाजपहोमायनुक्रमात् ॥१६॥
सिद्धविद्यस्ततः सिद्धप्रतिमार्चनपूर्वकम् । विद्याफलानि भोग्यानि वियद्गमनचुम्बुभिः ॥१७॥ इस महाभरत क्षेत्रमें अवसर्पिणी कालसम्बन्धी चतुर्थ कालके प्रारम्भमें मनुष्योंकी जो स्थिति होती है वही यहाँ के मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है और उस चतुर्थ कालके अन्तमें जो स्थिति होती है वही यहाँ की जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार चतुर्थ कालके प्रारम्भमें जितनी शरीरकी ऊँचाई होती है उतनी ही यहाँ की उत्कृष्ट ऊँचाई होती है और चतुर्थ कालके अन्त में जितनी ऊँचाई होती है उतनी ही यहाँ जघन्य ऊँचाई होती है। इसी नियमसे यहाँ की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्वकी और जघन्य सौ वर्षकी होती है तथा शरीरकी उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ धनुष और जघन्य सात हाथकी होती है, भावार्थ-यहाँपर आर्यस्खण्डकी तरह छह कालोंका परिवर्तन नहीं होता किन्तु चतुर्थ कालके आदि अन्तके समान परिवर्तन होता है ॥२-१०।। कर्मभूमिमें वर्षा, सरदी, गरमी आदि ऋतुओंका परिवर्तन तथा असि, मपि आदि छह कर्म रूप जितने नियोग होते हैं वे सब यहाँ पूर्ण रूपसे होते हैं किन्तु यहाँ विशेषता इतनी है कि महाविद्याएँ यहाँ के लोगोंको इनकी इच्छानुसार फल दिया करती हैं ।।११।। यहाँ विद्याधरोंको जो महाप्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ सिद्ध होती हैं वे इन्हें कामधेनुके समान यथेष्ट फल देती रहती हैं ॥१२॥ वे विद्याएँ दो प्रकारकी हैं - एक तो ऐसी हैं जो कुल (पितृपक्ष) अथवा जाति (मातृपक्ष) के आश्रित हैं और दूसरी एसी हैं जो तपस्यासे सिद्ध की जाती हैं। इनमें से पहले प्रकारकी विद्याएँ कुल-परम्परासे ही प्राप्त हो जाती हैं और दूसरे प्रकारकी विद्याएँ यत्नपूर्वक आराधना करनेसे प्राप्त होती हैं ॥१३॥ जो विद्याएँ आराधनासे प्राप्त होती हैं उनकी आराधना करनेका उपाय यह है कि सिद्धायतनके समीपवर्ती अथवा द्वीप, पर्वत या नदीके किनारे आदि किसी अन्य पवित्र स्थानमें पवित्र वेष धारण कर ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए विद्याकी अधिटातृ देवताकी पूजा करे तथा नित्य पूजापूर्वक महोपवास धारण कर उन विद्याओंकी आराधना करे । इस विधिसे तथा तपश्चरण नित्यपूजा जप और होम आदि अनुक्रमके करनेसे विद्याधरीको वे महाविद्याएँ सिद्ध हो जाती हैं ॥१४-१६।। तदनन्तर जिन्हें विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं ऐसे आकाशगामी विद्याधर लोग पहले सिद्ध भगवान्की प्रतिमाकी पूजा करते हैं और
१. अवसाने । २. चतुर्थकालस्य । ३. उत्कृष्टजघन्यतः । ४. अवसानोत्कृष्टायुः। ५. क्रमेण पूर्वकोटिवर्षशतभेदो। ६ अरलिसप्तकपर्यन्तम् । ७. संपूर्णः । ८. विद्याधराणाम् । ९. वंशादि । १०. क्षत्रियादि । ११. सिद्धकूटनैत्यालयसमीपे । १२. ब्रह्मचर्यव्रत । १३. पूर्वसेवा । १४. प्रतीतः ।