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एकोनविंशं पर्व विष्कम्म चतुरनाच तबाहालकपतयः । त्रिंशद, च दण्डानां रुन्द्राश्च द्विगुणोरिलताः ॥६२॥ त्रिंश दण्डान्तराश्चैता मणिहेमविचित्रिताः । उस्संघसदशारोह सोपाना गगनस्पृशः ॥३३॥ द्वयोरहालयोर्मध्ये गोपुरं रत्नतोरणम् । पञ्चाशद्धनुरुसंधं तदर्धमपि विस्तृतम् ॥६॥ गोपुराहालयोर्मध्ये त्रिधा नुष्कावगाहनम् । इन्द्रकोशमभूत् सापि धानैर्युक्तं गवाशकैः ॥६५॥ तदन्तरेषु राजन्ते सुस्था देवपया स्तथा । त्रिहस्तविस्तृताः पाश्च तच्चतुर्गुणमायताः ॥६६॥ इत्युक्तखातिकावप्रप्राकारैः परितो वृताः । विमासन्ते नगर्योऽमू : परिधा नरिवाशनाः ॥६७॥ चतुष्का'णां सहसं स्याद् वीथ्यस्त द्वादशाहतम् । द्वाराण्येक सहस्रं तु महान्ति क्षुद्र कागि वै ॥८॥ तदर्ध तद्विशत्यप्रिमाणि द्वाराशि तानि च । सकबाटानि राजन्ते नेत्राणीव "पुरश्रिया ॥१९॥ पूर्वापरेण रुन्द्राः स्युर्योजनानि नव ताः । दक्षिणोत्तरतो दीर्घा द्वादश प्राङ्मुखं स्थिताः ॥७॥ राजगेहादिविस्तारमासां को नाम वर्णयेत् । ममापि नागराजस्य यत्र मोमुह्यते मतिः ॥७॥ ग्रामाणां कोटिरेका स्यात् परिवारः पुरं प्रति । तथा खेटमडम्बादिनिवेशश्च पृथग्विधः" ॥७२॥
व्याप्त है और कहीं-कहींपर रत्नमयी शिलाओंसे भी युक्त है ।।६१॥ उस परकोटापर अट्टालिकाओंकी पंक्तियाँ बनी हुई हैं जो कि परकोटाको चौड़ाईके समान चौड़ी हैं, पन्द्रह धनुष लम्बी हैं और उससे दूनी अर्थात् तीस धनुष ऊँची हैं ॥६२॥ ये अट्टालिकाएँ तीस-तीस धनुषके अन्तरसे बनी हुई हैं, सुवर्ण और मणियोंसे चित्र-विचित्र हो रही हैं, इनकी ऊँचाईके अनुसार चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और ये सभी अपनी ऊँचाईसे आकाशको छू रही हैं ॥६शा दोदो अट्टालिकाओंके बीच में एक-एक गोपुर बना हुआ है उसपर रत्नोंके तोरण लगे हुए हैं। ये गोपुर पचास धनुष ऊँचे और पचीस धनुष चौड़े हैं ॥६४॥ गोपुर और अट्टालिकाओंके बीचमें तीन-तीन धनुष विस्तारवाले इन्द्रकोश अर्थान् बुरज बने हुए हैं। बुरज किवाइसहित झरोखोंसे युक्त हैं ॥६५॥ उन बुरजोंके बीचमें अतिशय स्वच्छ देवपथ बने हुए हैं जो कि तीन हाथ चौड़े और बारह हाथ लम्बे हैं ॥६६।। इस प्रकार ऊपर कही हुई परिखा, कोट और परकोटा इनसे घिरी हुई वे नगरियाँ ऐसी सुशोभित होती हैं मानो वस्त्र पहने हुई खियाँ ही हों॥६७। इन नगरियोंमें से प्रत्येक नगरीमें एक हजार चौक हैं, बारह हजार गलियाँ हैं
और छोटे-बड़े सब मिलाकर एक हजार दरवाजे हैं ॥६८।। इनमें से आधे अर्थात् पाँच सौ दरबाजे किवाडसहित हैं और वे नगरीकी शोभाके नेत्रोंके समान सशोभित होते हैं। इन पाँच सौ दरवाजोंमें भी दो सौ दरवाजे अत्यन्त श्रेष्ठ हैं ॥६९॥ ये नगरियाँ पूर्वसे पश्चिम तक नौ योजन चौड़ी हैं और दक्षिणसे उत्तर तक बारह योजन लम्बी हैं। इन सभी नगरियोंका मुख पूर्व दिशाकी ओर है |७०|| इन नगरियोंके राजभवन आदिके विस्तार वगैरहका वर्णन कौन कर सकता है ? क्योंकि जिस विषयमें मुझ धरणेन्द्रको बुद्धि भी अतिशय मोहको प्राप्त होती है तब औरकी बात ही क्या है ? ॥७१।। इन नगरियों में से प्रत्येक नगरीके प्रति एक-एक करोड़
१. व्याससमानचतुरस्राः । त्रिंशदर्द्धम् पञ्चदशदण्डप्रमाणव्यासा इत्यर्थः । २. तद्व्यासद्विगुणोत्सेधाः। ३. द्वयोरट्रालकयोर्मध्ये त्रिशद्दण्डा अन्तरा यासां ताः । ४. आरोहणनिमित्त । ५. चापत्रय । विधनुष्का में, ल.। ६. कवाटसहितः । ७. भेर्याकाररचनाविशेषाः । ८. अधोऽशुकः । ९. चतुःपथमध्यस्थितजनाश्रयणयोग्य. मण्डपविशेषाणाम् । १०. तत्सहस्रं द्वादशगुणितं चेत्, द्वादशहस्रवीथयो भवन्तोति भावः। ११. द्वाराष्येकं सहस्रं तु प० । १२. तेषु द्वारेषु शतदयश्रेष्ठाणि राजगमनागमनयोग्यानि द्वाराणि भवन्ति । १३. पुरश्रियाः इति क्वचित् पाठः । १४. रचना । १५. नानाप्रकारा।