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आदिपुराणम्
विसृगामपि खातानामन्तरं 'दण्डसम्मितम् । दण्डाइचतुर्दशेकस्या ब्यासो ट्यूनोऽन्ययोर्द्वयोः ॥ ५४ ॥ विष्कम्भादवगाढास्ताः पादोनं वार्द्धमेव वा । त्रिमार्ग मूलास्ता ज्ञेया मृलाद्वा चतुरखिकाः ॥ ५५ ॥ रत्नोपलैरुपहिताः" स्वर्णेष्टक चिताश्च ताः । "तौयान्तिक्यः परवाहयुक्ता वा निर्मलोकाः ॥ ५६ ॥ पद्मोत्पल' वतंसिन्यो "यादोदोर्घटनक्षमाः । महान्धिभिरिव स्पर्धा कुर्वाणास्तुङ्गत्रीचिभिः ॥५७॥ चतुर्दण्डान्तरश्चातो" वप्रः" षड्धनुरुच्छ्रितः । स्वर्णपांसूपलैश्छन्नः स्वोत्सेधादुद्विश्च विस्तृतः ॥५८॥ तमूर्ध्वचयमिच्छन्ति” तथा मञ्च पृष्टकम् | "कुम्भकुक्षिसमाकारं गोक्षुरक्षोदनिस्तलम् ॥५९॥ - वप्रस्योपरि सालोऽभूद् विष्कम्भाद् द्विगुणोच्छ्रितः । “चतुर्विंशतिमुद्विद्धो धनुषां तलमूलतः " ॥ ६० ॥ 'मुरजैः कपि शीर्षैश्च रचिताग्रः समन्ततः । चित्रहैमेष्ट्रकचितः क्वचित् रत्नशिलामयः ॥ ६१॥
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परिखाओंसे घिरी हुई हैं ||५३|| इन तीनों परिखाओंका अन्तर एक-एक दण्ड अर्थात् धनुष प्रमाण हैं तथा पहली परिखा चौदह दण्ड चौड़ी है, दूसरी बारह और तीसरी दस दण्ड चौड़ी है ||४|| ये परिखाएँ अपनी-अपनी चौड़ाईसे क्रमपूर्वक पौनी, आधी और एकतिहाई गहरी हैं अर्थात् पहली परिखा साढ़े दस धनुष, दूसरी छह धनुष और तीसरी सवा तीन धनुषसे कुछ अधिक गहरी है। ये सभी परिखाएँ नीचेसे लेकर ऊपर तक एक-सी चौड़ी हैं ॥ ५५ ॥
पराएँ सुवर्णमयी ईंटोंसे बनी हुई हैं, रत्नमय पाषाणोंसे जड़ी हुई हैं, उनमें ऊपर तक पानी भरा रहता है और वह पानी भी बहुत स्वच्छ रहता है। वे परिखाएँ जलके आने-जानेके परीवाहोंसे भी युक्त हैं ||२६|| उन परिखाओंमें जो लाल और नीले कमल हैं वे उनके कर्णाभरण-से जान पड़ते हैं, वे जलचर जीवोंकी भुजाओंके आघात सहने में समर्थ हैं और अपनी ऊँची लहरोंसे ऐसी मालूम होती हैं मानो बड़े-बड़े समुद्रोंके साथ स्पर्द्धा ही कर रही हों ॥५७॥ इन परिखाओंसे चार दण्डके अन्तर ( फासला ) पर एक कोट है जो कि सुवर्णकी धूलिके वने हुए पत्थरों से व्याप्त है, छह धनुष ऊँचा है और बारह धनुष चौड़ा है ||१८|| इस कोटका ऊपरी भाग अनेक कंगूरोंसे युक्त है । वे कंगूरे गाय के खुर के समान गोल हैं और घड़े के उदर के समान बाहर की ओर उठे हुए आकारवाले हैं ।। ५९ ।। इस धूलि कोटिके आगे एक परकोटा है जो कि चौड़ाई दूना ऊँचा है । इसकी ऊँचाई मूल भागसे ऊपर तक चौबीस धनुष है अर्थात् यह बारह धनुष चौड़ा और चौबीस धनुष ॐ चा है ॥ ६०॥ इस परकोटेका अग्रभाग मृदंग तथा बन्दरके शिरके आकार के कंगूरोंसे बना हुआ है, यह परकोटा चारों ओरसे अनेक प्रकारकी सुवर्णमयी ईंटों से
१. त्रिखातिकानामन्तरं प्रत्येकमेकैकदण्डप्रमाणं भवति । २ अपरयोर्द्वयोः खातिकयोः क्रमेण दण्डद्वयो न्यूनः कर्त्तव्यः । ३. व्यासमाश्रित्य त्रिखातिकाः । बाह्यादारभ्य चतुर्दश । द्वादशदशप्रमाणव्यासा भवन्तीत्यर्थः ४. अगाथाः । ५. खातिकाः । ६. निजनिजव्यास चतुर्थांशरहितावगाढाः । ७. अथवा । निजनिजव्यासार्द्धाविगाढाः भवन्तीति भावः । ८. निजनिजव्यासस्य तृतीयो भागो मूले यासां ताः । ९. मूले अग्रे च समानव्यासा इत्यर्थः । १०. घटिताः । ११. तोयस्यान्तः तोयान्तः । तोयान्तमर्हन्तीति तौयान्तिक्यः । अथवा तोयान्तेन दीव्यन्तीति तौयान्तक्यः । आकण्ठपरिपूर्ण जला इत्यर्थः । १२. जलोच्छ्वाससहिताः । 'जलोच्छ्वासः परीवाहः' इत्यभिधानात् । १३. पद्मोत्पलावतंसिन्यो- प० । १४. जलजन्तुभुजास्फालनसहाः । १५. खातिकाभ्यन्तरे । १६. प्राकारस्याधिष्ठानमित्यर्थः । १७. निजोत्सेधाद् द्विगुणन्यास इत्यर्थः । १८. वप्रस्योपरिमभागम् । १९. आमनन्ति । २०. 'पृष्ठनामानं तदग्रभागसंज्ञेत्यर्थः । २१. कुम्भपार्श्वसदृश । २२. ईषत् शुष्क कर्दम प्रदेश निक्षिप्तगोक्षुरस्याद्यो यथा वर्तुलं भवति तथा वर्तुलमित्यर्थः । २३. निजन्या सद्विगुणोन्नतः । २४. धनुषां चतुर्विंशतिदण्डोत्सेध इति यावत् । एते विष्कम्भा द्वादशदण्डा इत्युक्तम् । २५ अधिष्ठानमूलात् आरभ्य । २६. मर्दलाकार शिखरैः । २७. 'कपिशीपं तु सालाग्रम्' ।
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