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आदिपुराणम् स्वच्छाम्माकलिता लोक किं न सन्ति जलाशयाः। चानकस्याग्रहः कोऽपि यद्वाञ्छत्यम्बुदास्पयः॥१३॥ तदुसतेरिदं वित्त वृत्तं यद्विपुलं फलम् । वाम्छन्ति परमोदारं स्थानमाश्रित्य मानिनः ॥१३५॥ इत्यदीनतरां वाचं श्रुत्वाहीन्द्रः कुमारयोः । नितरां सोऽतुषञ्चित्ते इलाध्यं धैर्य हि मानिनाम् ॥१६॥ अहो महेच्छता यूनोरहो गाम्भीर्यमेतयोः। अहो गुरी परा भक्तिरहो श्लाघ्या स्पृहानयोः ॥१३७॥ इति प्रीतस्तदात्मीयं दिव्यं रूपं प्रदर्शयन् । पुनरित्यवदत् प्रीतिलतायाः कुसुमं वचः ॥१३॥ युवा युवजरन्तौ स्थस्तुष्टो वां धीरचेष्टितैः । अहं हि धरणो नाम फणिनां पतिरप्रिमः॥१३९॥ मां वित्तं किंकरं भर्तुः पातालस्वर्गवासिनम् । युवयोर्मोगभागित्वं विधातुं समुपागतम् ॥१४०॥ आदिष्टोऽस्म्यहमीशेन कुमारौ माक्तिकाविमौ । भोगैरिष्टैनियुक्ष्वेति द्रतं "तेनागतोऽस्म्यहम् ॥१४॥ "तदुत्तिष्ठतमापृच्छय मगवन्तं जगत्सृजम्" । युवयोभोंगमयाहं दास्यामि गुरुदेशिताम् ॥१४२॥ इत्यस्य वचनात् प्रीती कुमारौतमवोचताम् । सत्यं गुरुः प्रसञ्चो नौ भोगान् दिसति वान्छितान् ।।१४३॥ तद् अहि धरणाधीश यत्सत्यं मतमीशितुः । गुरोर्मताद्विना मोगा नावयोरभिसम्मताः ॥१४४॥
भारी अन्तर नहीं है ? क्या गोष्पदकी समुद्र के साथ बराबरी हो सकती है ? ॥१३३।। क्या लोकमें स्वच्छ जलसे भरे हुए अन्य जलाशय नहीं हैं जो चातक पक्षी हमेशा मेघसे ही जलकी याचना करता है। यह क्या उसका कोई अनिर्वचनीय हठ नहीं है ॥१३४|| इसलिए अभिमानी मनुष्य जो अत्यन्त उदार स्थानका आश्रय कर किसी बड़े भारी फलको वांछा करते हैं सो इसे आप उनकी उन्नतिका ही आचरण समझें ॥१३५।। इस प्रकार वह धरणेन्द्र नमि, विनमि दोनों कुमारोंके अदीनतर अर्थात् अभिमानसे भरे हुए वचन सुनकर मनमें बहुत ही सन्तुष्ट हुआ सो ठीक ही है क्योंकि अभिमानी पुरुषोंका धैर्य प्रशंसा करने योग्य होता है ॥१३६।। वह धरणेन्द्र मन-ही-मन विचार करने लगा कि अहा, इन दोनों तरुण कुमारोंकी महेच्छता (महाशयता) कितनी बड़ी है, इनकी गम्भीरता भी आश्चर्य करनेवाली है, भगवान् वृषभदेवमें इनकी श्रेष्ठ भक्ति भी आश्चर्यजनक है और इनकी स्पृहा भी प्रशंसा करने योग्य है। इस प्रकार प्रसन्न हुआ धरणेन्द्र अपना दिव्य रूप प्रकट करता हुआ उनसे प्रीतिरूपी लताके फूलोंके समान इस प्रकार वचन कहने लगा ॥१३७-१३८।। तुम दोनों तरुण होकर भी वृद्धके समान हो, मैं तुम लोगोंकी धीर-वीर चेष्टाओंसे बहुत ही सन्तुष्ट हुआ हूँ, मेरा नाम धरण है और मैं नागकुमार जातिके देवोंका मुख्य इन्द्र हूँ॥१३९॥ मझे आप पाताल स्वर्गमें रहनेवाला भगवानका किंकर समझें तथा मैं यहाँ आप दोनोंको भोगोपभोगकी सामग्रीसे युक्त करनेके लिए ही आया हूँ ॥१४०॥ ये दोनों कुमार बड़े ही भक्त हैं इसलिए इन्हें इनकी इच्छानुसार भोगोंसे युक्त करो। इस प्रकार भगवान्ने मुझे आज्ञा दी है और इसलिए मैं यहाँ शीघ्र आया हूँ॥१४॥ इसलिए जगतूकी व्यवस्था करनेवाले भगवानसे पूछकर उठो। आज मैं तुम दोनोंके लिए भगवानके द्वारा बतलायी हई भोगसामग्रीदूंगा॥१४२।। इस प्रकार धरणेन्दके वचनोंसे वे कमार बहत ही प्रसन्न हुए और उससे कहने लगे कि सचमुच ही गुरुदेव हमपर प्रसन्न हुए हैं और हम लोगोंको मनवांछित भोग देना चाहते हैं ॥१४३।। हे धरणेन्द्र, इस विषयमें भगवानका जो सत्य मत हो वह हम लोगोंसे कहिए क्योंकि भगवानके मत अर्थात् सम्मति के बिना हमें भोगोपभोग
१. अम्बुदात् पयो वाञ्छति यः स कोऽप्याग्रहोऽस्ति । २. जानीत । ३. वर्तनम्। ४. वाञ्छन्तीति यत् । ५. महाशयता। 'महेच्छस्तु महाशयः' इत्यभिधानात्। ६. भवतः । ७. युवयोः। ८. जानीतम् । ९. बाशापितः । १०. नियोजय । ११. कारणेन । १२. तत् कारणात् । १३. पृष्ट्वा । १४. जगत्कर्तारम् । १५. आवयोः । १६. दातुमिच्छति ।