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आदिपुराणम् भगवांस्त्यारागादिसंगो देहेऽपि निःस्पृहः । कुतो 'वामधुना दद्याद् भागान् भागस्पृहावताः ॥११४॥ ततोऽलमुपद्वयनं देवं मुक्त्यर्थमुथतम् । भुक्तिकामा युवां यातं भरतं पर्युपासितुम् ॥११५॥ इति तद्वचनस्यान्ते कुमारी प्रत्यवोचताम् । परकायेंषु वः कास्था तूष्णी यात महाधियः ॥११॥ यदत्र युक्तमन्यद्वा जानीमस्तद्वयं वयम् । अनमिज्ञा भवन्तोऽत्र साधयन्तु यथेहितम् ॥११७॥ वर्षीयांसों यवीयांस' इति भेदो वयस्कृतः । न बोधवृद्धिर्वार्धक्ये न यून्यपचयो धियः ॥११॥ वयसः परिणामेन धियः प्रायेण मन्दिमा । कृतात्मनां'वयस्याये ननु मंधा विवर्धते ॥११॥ नवं वयो न दोषाय न गुणाय दशान्तरम् । नवोऽपीन्दुर्जनाहादी दहत्यग्निर्जरनपि ॥१२०॥ अपृष्टः कार्यमाचष्टे यः स पृष्टतरो मतः । न "पिपृच्छिषिता यूयमावाभ्यां कार्यमीदृशम् ।।१२१॥ भपृष्टकार्यनिर्देशः "व्यलीकानिष्टचाटुभिः । छलयन्ति खला लोकं न सवृत्ता भवद्विधाः ॥१२२॥ नामृष्टभाषिणी जिह्वा चेष्टा नानिष्टकारिणी । नान्योपघातपरुषा स्मृतिः स्वप्नेऽपि धीमताम् ।।१२३॥
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वही श्रेष्ठ राजा है ॥११३॥ भगवान तो राग, द्वेष आदि अन्तरङ्ग परिग्रहका त्याग कर चुके हैं और अपने शरीरसे भी निःस्पृह हो रहे हैं, अब यह भोगोंकी इच्छा करनेवाले तुम दोनोंको भोग कैसे दे सकते हैं ? ॥११४।। इसलिए, जो केवल मोक्ष जानेके लिए उद्योग कर रहे हैं ऐसे इन भगवान के पास धरना देना व्यर्थ है । तुम दोनों भोगोंके इच्छुक हो अतः भरतकी उपासना करनेके लिए उसके पास जाओ ॥११५।। इस प्रकार जब वह धरणेन्द्र कह चुका तब वे दोनों नमि, विनमि कुमार उसे इस प्रकार उत्तर देने लगे कि दूसरेके कार्यों में आपकी यह क्या आस्था (आदर, बुद्धि) है ? आप महा बुद्धिमान हैं, अतः यहाँसे चुपचाप चले जाइए ॥११६।। क्योंकि इस विषयमें जो योग्य अथवा अयोग्य हैं उन दोनोंको हम लोग जानते हैं परन्तु आप इस विषयमें अनभिज्ञ हैं इसलिए जहाँ आपको जाना है जाइए ॥११७॥ ये वृद्ध हैं और ये तरुण हैं यह भेद तो मात्र अवस्थाका किया हुआ है । वृद्धावस्था में न तो कुछ ज्ञानकी वृद्धि होती है और न तरुण अवस्थामें बुद्धिका कुछ हास ही होता है, बल्कि देखा ऐसा जाता है कि अवस्थाके पकनेसे वृद्धावस्थामें प्रायः बुद्धिकी मन्दता हो जाती है और प्रथम अवस्था में प्राय पुण्यवान पुरुपोंकी बुद्धि बढ़ती रहती है ॥११८-११९।। न तो नवीन-तरुण अवस्था दोप उत्पन्न करनेवाली है और न वृद्ध अवस्था गुण उत्पन्न करनेवाली है क्योंकि चन्द्रमा नवीन होनेपर भी मनुष्योंको आह्लादित करता है और अग्नि जीर्ण (वुझनेके सम्मुख) होनेपर भी जलाती ही है ।।१२०॥ जो मनुष्य बिना पूछे ही किसी कार्यको करता है वह बहुत ढीठ समझा जाता है । हम दोनों हो इस प्रकारका कार्य आपसे पूछना नहीं चाहते फिर आप व्यर्थ ही बीचमें क्यों वोलते हैं ॥१२१॥ आप-जैसे निन्द्य आचरणवाले दुष्ट पुरुष बिना पूछे कार्योंका निर्देश कर तथा अत्यन्त असत्य और अनिष्ट चापलूसीके वचन कहकर लोगोंको ठगा करते हैं ॥१२२॥ बुद्धिमान पुरुपोंकी जिह्वा कभी स्वप्नमें भी अशुद्ध भाषण नहीं करती, उनकी चेष्टा कभी दूसरोंका अनिष्ट नहीं करती और न उनकी स्मृति ही दूसरोंका विनाश करने के लिए कभी कठोर
१. युवयोः। २. उपरोधेनालम् । “निपेधेऽलं खलु क्त्वा वेति वर्तते ।' निषेधे वर्तमानयोरलं खल इत्येतयोरुपपदयोर्धातो: क्त्वा प्रत्ययो वा भवतीति वचनात् । यथाप्राप्तं च । अलंकृत्वा । खलकृत्वा । अलं बाले रुदित्वा। अलं बाले रोदनेन । अलंखलाविति किम् ? मा भावि नार्थो रुदितेन । निपेव इति किम् ? अलंकारं सिद्धं खलु । ३. भोगकामो। ४. गच्छतम्। ५. यत्नः । ६. अयुक्तम् । ७. अस्मद्विषये । ८. वृद्धाः। ९. युवानः । १०. परिपाकेन । ११. कृतः शस्त्रादिना निष्पन्न आत्मा बुद्धिर्येषां ते कृतात्मानस्तेषाम्, 'आत्मा यत्नो धृतिः बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्म च' इत्यमरः । १२. वार्धक्यम् । १३. न प्रष्टमिष्टाः। १४. उपदेशैः । १५. असत्य । १६. चाटुवादैः । ११. लोकानसद्वत्ता प० । १८. अशुद्ध ।