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अष्टादशं पर्व
विदिताखिलवेद्यानां नोपदेशो भवाशाम् । न्यायोऽस्मदादिभिः सन्तो यतो न्यायकजीविकाः ॥१२४॥ शान्तो वयोऽनुरूपोऽयं वेषः सौम्येयमाकृतिः । वचः प्रसन्नमृजस्वि ब्याचष्टे वः प्रबुद्धताम् ॥१२५॥ बहिःस्फुरस्किमप्यन्तर्गृहं तेजो जनातिगम् । महानुभावतां वकि वपुरप्राकृतं च वः ॥१२६॥ इत्यमिव्यक्तवैशिष्टया भवन्तो भद्रशीलकाः । कार्यऽस्मदीये मुहयन्ति न विनः किं नु कारणम् ॥१२७॥ गुरुप्रसादनं इलाध्यमावाभ्यां फलमीप्सितम् । यूयं तत्प्रतिबन्धारः परकायपु शीतलाः ॥१२८॥ परेषां वृद्धिमालोक्य नन्वसूयति दुर्जनः । युष्मादृशां तु महतां सतां प्रत्युत सा मुदे ॥१२९॥ वनेऽपि वसतो भर्तुः प्रभुत्वं किं परिच्युतम् । पादमूले जगद् विश्वं यस्याद्यापि चराचरम् ॥१३०॥ कल्पानोकहमुत्सृज्य को नामान्यं महीरुहम् । सेवेत पटुधीरीप्सन् फलं विपुलमूर्जितम् ॥१३॥ महाब्धिमथवा हित्वा रस्नार्थी किमु संश्रयेत् । पल्वलं ' शुष्कशैवालं शाल्यर्थी वा पलालकम् ||१३२॥ भरतस्य गुरोश्चापि किमु नास्त्यन्तरं महत् । गोष्पदस्य समुद्रेण समकक्ष्यत्वमस्ति वा" ॥१३३॥
होती है ॥१२३।। जिन्होंने जानने योग्य सम्पूर्ण तत्त्वोंको जान लिया है ऐसे आप-सरीखे बुद्धिमान् पुरुषोंके लिए हम बालकों-द्वारा न्यायमार्गका उपदेश दिया जाना योग्य नहीं है क्योंकि जो सज्जन पुरुष होते हैं वे एक न्यायरूपी जीविकासे ही युक्त होते हैं अर्थात् वे न्यायरूप प्रवृत्तिसे ही जीवित रहते हैं ॥१२४॥ आयुके अनुकूल धारण किया हुआ आपका यह बेष बहुत ही शान्त है, आपकी यह आकृति भी सौम्य है और आपके वचन भी प्रसादगुणसे सहित तथा तेजस्वी हैं और आपकी बद्धिमत्ताको स्पष्ट कह रहे हैं ॥१२५।। जो अन्य साधारण पुरुषों में नहीं पाया जाता और जो बाहर भी प्रकाशमान हो रहा है ऐसा आपका यह भीतर छिपा हुआ अनिर्वचनीय तेज तथा अद्भुत शरीर आपको महानुभावताको कह रहा है। भावार्थ-आपके प्रकाशमान लोकोत्तर तेज तथा असाधारण दीप्तिमान शरीरके देखनेसे मालूम होता है कि आप कोई महापुरुष हैं॥१२६।। इस प्रकार जिनको अनेक विशेषताएँ प्रकट हो रही हैं ऐसे आप कोई भद्रपरिणामी पुरुष हैं परन्तु फिर भी आप जो हमारे कार्यमें मोहको प्राप्त हो रहे हैं सो उसका क्या कारण है ? यह हम नहीं जानते ॥१२७॥ गुरु-भगवान वृषभदेवको प्रसन्न करना सब जगह प्रशंसा करने योग्य है और यही हम दोनोंका इच्छित फल है अर्थात् हम लोग भगवानको ही प्रसन्न करना चाहते हैं परन्तु आप उसमें प्रतिबन्ध कर रहे हैं-विघ्न डाल रहे हैं इसलिए जान पड़ता है कि आप दूसरोंका कार्य करनेमें शीतल अर्थात् उद्योगरहित हैं-आप दूसरोंका भला नहीं होने देना चाहते ॥१२८।। दूसरोंकी वृद्धि देखकर दुर्जन मनुष्य ही ईर्ष्या करते हैं। आप-जैसे सज्जन और महापुरुषोंको तो बल्कि दूसरोंकी वृद्धिसे आनन्द होना चाहिए ॥१२९।। भगवान वनमें निवास कर रहे हैं इससे क्या उनका प्रमुत्व नष्ट हो गया है ? देखो, भगवान्के चरणकमलोंके मूलमें आज भी यह चराचर विश्व विद्यमान है ॥१३०।। आप जो हम लोगोंको भरतके पास जानेकी सलाह दे रहे हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो बड़े-बड़े बहुत-से फलोंकी इच्छा करता हुआ भी कल्पवृक्षको छोड़कर अन्य सामान्य वृक्षकी सेवा करेगा ।।१३१॥ अथवा रत्नोंकी चाह करनेवाला पुरुष महासमुद्रको छोड़कर, जिसमें शेवाल भी सूख गयी है ऐसे किसी अल्प सरोवर (तलैया) की सेवा करेगा अथवा धानकी इच्छा करनेवाला पियालका आश्रय करेगा?॥१३२।। भरत और भगवान् वृषभदेवमें क्या बड़ा
१. पदार्थानाम् । २. तेजस्वी। ३. असाधारणम् । ४. अस्मदभीष्टप्रतिनिरोधकाः । ५. ईया करोति । ६. प्रवृद्धिः । ७.भूयिष्ठम् । ८. उपर्युपरि प्रवर्द्धमानम् । ९. अल्पसरः । १०. 'पलालोऽस्त्रीस निष्कलः । ११. किम् ।